इस छोटी सी दुनियाँ में,छोटे-बड़े हर लोग ।
रहते सभी हैं इसमें , हों जितनें सारे लोग ।।
जीव ही तो जीवों का ,करते रहे हैं भोज ।
जाती है कितनी जिन्दगी, इसी में रोज-रोज।।
ऐ प्रकृति, तेरी करिश्मा,कहाँ जानता लोग।
क्या रची रचना है तूँने, अनभिज्ञ सारे लोग ।।
संरचना सारी तुम्हारी, न जानता कोई लोग ।
तुम चाहते हो जैसा , हैं नाचते हर लोग ।।
कठपुतलियों सी तुम नचाते,लिये हाथ में डोर।
कहीं बैठकर तुम्हीँ घुमाते,नाचा करते हर लोग।।
डोर पकड़ कर तुम्हीं खींचते,नाचते बस लोग।
कर्म तुम्हारा श्रेय मुझे पर, देते हैं सब लोग ।।
अच्छा हो या हो बुरा,पर यही समझते लोग ।
करते निर्देशन अंदर से तुम, मुझे देखते लोग।।
तेरी मर्जी बिन,ब्यर्थ सदा हूँ,जानत है सब लोग।
हो मर्जी तेरी दे सकते , तत्तक्षण चौरासी भोग।।
सामर्थ्य तुम्हीं हो,तेरे बल से, कुछ भी करते लोग।
ऐ प्रकृति तुझे शक्तिमान, समझते हैं हर लोग ।।
स्रोत शक्ति की तुम ही केवल,सचर-अचर हर लोग।
‘प्रकृति’तेरा नाम न केवल,कुछ कहते औरभी लोग।।
तुम ही संचालक दुनियाँ के,निर्माता भी बिध्वंसक भी।
जब चाहो निर्माता बनती, चाहो बिध्वंस कराती भी।।