रुधिर तो खौलता रहता ,मुख से कुछ नहीं कहता ।
सुनाना चाहता भी तब ,नहीं कोई सुना करता।।
बारूद का गोला , कभी जब फूट पड़ता है ।
धधकती अग्नि बन शोले ,कवच को तोड़ देता है।।
बैलेट जब निकलते हैं , दिग्गज डोल हैं जाते।
कुर्सी घिसक उनकी, जमीं पर है नजर आते ।।
अचानक आसमा्ँ से गिर,जमीं पर आ तभी जते।
उनका ताज तत्तक्षण ही सर से उतर जाते ।।
आम सा एक नागरिक, बन तभी जाते ।
मुफ्त मे ऐश करते थे , वे सब कुछ चले जाते।।
नशा जब तख्त का उनका ,टूटकर दूर हो जाता ।
कुछ चाल मस्तिष्क फिर नया,कुछ ढ़ूँढ़ है लेता ।।
मकसद सिर्फ है उनका ,गद्दी को पकड़ रखना ।
जनता भाँड़ में जाये ,मतलब क्यों भला रखना ।।
अगला फिर समय आये ,शगूफा फिर निकालेगें ।
चतुर होते बडे खुद ये ,नया फिर कुछ निकालेगें ।।
पता है खूब इनको ,कब किसे कैसे फँसा लेना ।
दवा कब कौन सी दे कर ,मर्ज को है भगा देना ।।
फँसाने में लगे रहते, नया कोई जाल फैलाते ।
सभी रुठे हुओं को ,प्यार से उसमें फँसा लेते ।।
मीठी बात में उनकी ,झलकता प्यार सा होता ।
सब तो जानकर भी ,जाल में उनका ही फंस जाता।।
इसी तरकीब से हरदम, उनका काम चल जाता ।
बना कर मूढ़ जनता को ,सफल अभियान हो जाता।।