प्रकृति

ऐ प्रकृति , दुनियाँँ बना कर , काम कैसा कर रही ?

कितनी अनोखी चीज सारी , निर्माण तूँ नित कर रही।।

क्या-क्या रची तुमने , अनोखी चीज सारी तूँ बनाई ।

दुनियाँँ रची , रच जीव-जन्तु , अनगिनत हर जीव बनाई।।

इतने बडे की हद नहीं , छोटे भी इतने की हद नही।

जिन्हें ज्ञान दे मानव बनाया , पता उन्हें भी है नहीं ।।

क्या -क्या बनायी चीज तुमनें, सिर्फ तुम ही जानते ।

और क्या कितनी बनाई , रहस्य सारा जानते ।।

मानव बनाया ज्ञान दे कर, वह भी अधूरा जानता है।

बुद्धि लगा जो सीखता है ,थोडा बहुत वह जानता है।।

विशाल सागर मेंं महज , एक तैरता तिनका है मानव।

अथाह सागर का किनारा , ज्ञात तक रखता न मानव ।।

असंख्य तारों का गणन ,मानव अभी तक कर सका क्या?

देती दिखाई आँख से जो , ज्ञात उसको कर सका क्या ??

अनेक ऐसी चीज है , मानव न जिसको जानता ।

घटनाएं घटती रोज दिखती , कारण न उसका जानता।।

इस प्रकृति की गर्भ में , रहस्य कितनें हैं गडे ।

निकाल लेना ढ़ूंढ़ कर , आसाँ नहीं , है कठिन बडे ।।

जो दम भरा तुममें ,कहीं किसी अन्य में तो है नहीं ।

सम्पूर्ण तुमको जान ले , ऐसा भीतो कोई है नहींं ।।

केवल अकेला तुम जगत मे ,कोई नाम ले कुछ भी पुकारे।

तुमको न पड़ता फर्क है , जी चाहता जो वह पुकारे ।।

मुकाबला तुम से करे , . जग में नहीं इन्सान है ।

करता अगर कोई आदमी , समझें बडा़ नादान है ।।

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