नीयत अगर इन्सान की , बिगड़ी नहीं होती ।
हालात जैसी आज है , वैसी नहीं होती ।।
हम बढ़ रहे या घट रहे , सोचो जरा क्या कर रहे।
हम बढ़ रहे तो हैं कहीं , घटते कहीं पर जा रहे ।।
विज्ञान के हर क्षेत्र मे , आगे सदा हम बढ़ रहे ।
समाज से हो दूर , अपने आप में ही सिमट रहे।।
समाज का निर्माण से ,मानव किया विकास है गर।
तो टूट जाना भी बनेगा , ह्रास का प्रमाण भी पर।।
समाज मानव को बनाया , पर टूट गर वह जायेगा।
नीचे घिसक क्या वह नहीं, एक जानवर रह जायेगा।।
समाज के ही सूत्र में बँध , हम सदा बढ़ते रहे हैं ।
जो ज्ञान मुनि गण ने दिया ,उस पर सदा चलते रहे हैं।।
ज्ञान सीखा हम उसीसे , और सिखाया लोग को ।
सभ्यता उसने सिखाया , ज्ञानी बनाया लोग को ।।
अपवाद पर कुछ हो गये , सीखा न उनके ज्ञान को।
कुछ जानना चाहा न उसनें ,रखा दूर अपने ध्यान को।।
नीयत बिगाडी स्वयं अपनी , बिगाड़ दी कुछ लोग को।
स्वयं तो सड़ ही गया , पर संग सड़ाया और को ।।
फँसते चले गये लोग ढेरों , इस गंदगी के ढ़ेर में ।
खुद डूब लोगों को डुबोया , आकण्ठ ही उस ढेर मे।।
अपनी संस्कृति गये भूलते, करते नकल गये लोग का।
थी संस्कृति अपनी अनूठी , पर गोद ले ली और का।।
हम नकलची ही बनें ,करते रहे उनका नकल ।
कब छोड़ पायेंगे इसे , खुल पायेगी मेरी अकल ।।
है क्या पता ,अकल ठिकाने, कब हमारा आयेगा।
जो ज्ञान था मेरे पूर्वजो का , लौट कर कब आयैगा।।