(अ)मधु टपकत मधुछत्त से , स्वाद ले रसना खाये ।
भँवरा करे बिरोध गर , धुँआस भगावल जाये ।।
यही परंपरा युगों-युगों से, कहै लोग चली आये ।
संचय तो कोई करै , अनय और कोई खाये ।।
(ब)कृषक पसीना बहा बहा , फसलें लेत उगाय ।
स्वयं खात है छाँट -छूँट , कभी न बढियांं खाये ।।
कहत है सिन्हा सोंच कर , किस्मत यही कहाये।
किस्मत वाला ।खायेगा , कृषक सिर्फ उपजाये ।।
(स) कोई न पूछत कृषक को ,तरजीह न देवत कोई।
भोजन सब को यही करावत ,खुद रहे उपेक्षित होई।।
उत्तम कर्म करै यह सबसे , पर उत्तम कहै न कोई ।
पुत्र पढा़ के शहरी कर दै , वह भी बोलत सोई ।।