कहते काठ की हाँडी ,दोबारा फिर नहीं चढ़ती ।
फलती एक बार कदली ,बारम्बार न फलती ।।
चपला मे चमक होती , पर पल दो पलों की ही ।
चमक में तीब्रता होती, पलों में कुछ नही दिखती।।
धोखा दे ठगी कर लोग , दौलत तो बना सकते ।
चमक चलती नहीं ज्यादा, पकड़ में आ ही है जाते।।
समझ लब लोग हैं जाते, फिर क्या हाल हैं करते ।
कचरे सा उठा डस्टबीन में ही, डाल है देते ।।
जो होते आँख का तारा , घृणा का पात्र बन जाते ।
दिखते कभी आते , तो अपना पथ बदल लेते ।।
श्रद्धा जो बनी थी , परिणती, घृणा में हो जाती ।
कभी थे पुष्प बरसाते, बदले रोड़े है बरसाती ।।
भांडा फूटता है जब , सब श्रद्धा बदल जाते ।
धोखा जो दिया करते , धोखा खुद ही खा जाते ।
बदल कर ही वही उतनी , घृणा का रूप ले लेते।।
समाज की नजरों से तो, बिलकुल ही गिर जाते।।
आदर तो अनादर में , फिर ऐसा बदल जाता ।
कैसे हुआ सब कुछ ,समझ उनको नहीं आता ।।
जयकार थे करते वही , अब गालियाँ देते ।
कुछ बोलकर उनको , बजा वे तालियां देते ।।
जो गिरते डाल से बन्दर, समाज से छाँटना पड़ता ।
गिरे जो दूध में मक्खी ,निकाल कर फेंकना पडता।।
धोखा लोग को दे कर, जो खुद को तेज हैं कहतें।
समय देता उन्हें धोखा , कहीं के फिर नहीं रहते ।।
क्यों कि काठ की हाँडी , दोबारा चढ़ नही पाती ।
गलत जो काम हैं करते ,नतीजा गलत ही मिलती ।।
👌👌well written
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धन्यवाद.
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