मुक्तक

कातिल अदायें और शोखी, से भरी नजरें ।

चितवन बाण से उनके,भला कैसे कोई उबरे।।

हुस्न जब घेरती है घर लेती ,हर अदाओं से।

दबा खुद चाहते रहना ,पर नादान कुछ भँवरे।।

(ख)
कातिल अदायें हों ,नजर भी शोख हो सकती ।

चितवन बाण से अपने,घायल भी कर सकती।।

लबों की मुस्कुराहट ईक,समझ क्या जुर्म ढा सकती।

मही पर आशिकों का हाल, बेहाल कर सकती ।।

(ग)
हुस्न में शक्ति है इतनी, जवानी सर झुकाती है।

मनोबल बढ़ गया रहता,दमन का चक्र चलाती है।।

बरबस ही झुका देती, जवानी झाँकती बगलें।

झुका फिर प्यार से उनपर,अपना हुक्म चलाती है।।

(घ)
सुन्दरता का कौन ठिकाना, आज न कल ढल जाना है।

करना कौन भरोसा , कल कचरे में चल जाना है ।।

किसी की सदा न रही जवानी,सबको ही ढलजाना है।

इतराने की भूल न करना,यह तो मात्र फसाना है।।

(ड.)
यह तो नश्वर दुनियाँ है ,करना नहीं भरोसा।

कबतक है कब नहीं रहेगी,इनकाभी नहीं भरोसा।

आते लोग चले जाते, चलता यही तमाशा ।

नहीं कोई ऐसा है जग में,जो रह.जाये हमेशा।।

(च)
हुस्न का नाम तब होता ,जब चाहत हुआ करते।

हुस्न को चाहने वाले,हुस्न का नाम कर देते ।।ःः

वरना जानता ही कौन,खिले वन के प्रसूनों को?

कब खिला करते ,खिलकर सूख कब जाते ।।


कातिल