जिन्दगी रफ्तार मेंं , अविरल ही बढती जा रही।
बाधाओं से बेखौफ हो,अपने ही पथ से जा रही।।
क्या जरूरत है भला, होगा मुझे क्या सोंच कर ।
नुकसान क्या है लाभ क्या, बात सारी जान कर।।
मैं मरुँ,मरने से पहले , रोज मर कर क्यों जिऊँ ?
जो बात बस में है नहीं, क्यो फिक्र उनका मैं करूँ??
है कर्म मुझको सिर्फ करना, हम किये ही जायेगे।
फल नहीं है मेरे बस में, चाह भी क्या पायेगे??
ग्रन्थ गीता ने सबों को, ये दिया संदेश है ।
कर्मवादी ही बनाने , का दिया उपदेश है ।
भाग्य रेखा बदल जाते, कर्म के प्रभाव से । बीर होते कर्मवादी, स्वयं ही स्वभाव से ।।
डरते नहीं हैं ये कभी ,रखते भरोसा कर्म का ।
स्वयं पर करना भरोसा ,विसय उनके गर्व का ।।
जिन्दगी रूकती नहीं है ,यह तो बढ़ती जायेगी ।
रुक गयी गर जिन्दगी ,तत्क्षण वहीं मर जायेगी ।।
जिन्दगी का नाम चलना , रुक गये गर मौत है।
मौत को भी क्या कहें ,तन का बदलता रूप है।।
आत्मा जब आमर है ,तन तो बस परिधान है ।
जर्जर हुए परिधान का ,बदलाव ही निदान है ।।
चिन्ता नकर बदलाव का यह तो नियति का खेल है।
खेल तो चलता सदा ,यह खेल भी क्या खेल है ।।