मुक्तक

जले जो दूध से होते ,छाछ भी फूँक कर पीते।

कदम जो देख कर रखते ,कभी औंधे नहीं गिरते।।

सफल जो चाहते होना, बरतते सावधानी वे।

सलूक पर अपने अडिग , हरदम रहा करते ।।

(02)
मुकद्दर जो लिखा करते ,उनसे सब डरा करते ।।

न शायद जो डरा करते ,उन्हें डरवा दिये जाते ।

खुदा गर चाहते अपनें , बनायों को डरा रखना।

सर्वोत्तम जीव मानव को.,फिर क्यों कहा करते??

(03)

मानव तो बनाया है ,बुद्धि डाल कर तुमनें ।

विवेक का संचार भी, उसमें किया तुमनें ।।

तेरी ईच्छा बिना कोई नहीं,पत्ता खड़क सकता।

तो निरीह को कैसे डूबोया , पाप में तुमनें ।।

(04)

जरूरत से अधिक भी सादगी,अच्छी नहीं होती।

खलों से दोस्ती करनी ,कभी अच्छी ऩहीं होती ।।

सब तो देखते सब को , अपनी नजरिये से ।

हीरे को को परखनें की नजर,सब को नहीं होती।।

(05)

बहुत कम लोग होते हैं, शराफत जो समझ पाते।

अधिकतर सादगी का अर्थ ,मुर्खो से लगा लेते ।।

तरजीह भी सब लोग से , होता कहाँ हजम ?

उन्हे तरजीह जो देते, उसे मूरख समझ लेते ।।

(06)

समझना और समझाना ,ये दोनों काम मानव का ।

यही एक फर्क है पडता,अन्य जीवों से मानव का।।

इनके ज्ञान से उपर नहीं ,कोई चीज दूनियाँ की ।

समझ सकता अगर सबकुछ,तो वो है ज्ञान मानव का।।

मुक्तक&rdquo पर एक विचार;

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