प्रकृति, गर खुदा बोलूँ तुझे, क्या फर्क पडता है?
तुझे ईश्वर कहेँ,भगवन,ईसा, क्या फर्क पडता है??
प्रकृति की देन है दुनियाँ,उन्हीं के सचर अचर सारे।
निर्जीव, सजीव, या यों कहें, ब्रह्मांड भी सारे ।।
कुदरत की करिश्मा लोग सब, तो देखते आँखों ।
जरूरत ही उन्हें क्या पूछने की,जो दिख रहा आँखों।।
बड़े ही धूर्तता से लोग कुछ, साजिश रचा करते।
मानव जाति को तोडा, अनेकों खण्ड कर डाला।।
प्रकृति देखती सब को, सिर्फ मानव स्वरूप मे ।
समझती ज्ञान से परिपूर्ण ही , प्रत्येक रूप मेंं ।।
प्रकृति ही रची दुनियाँ ,यही सब कुछ बनाई है ।
हर चीज दुनियाँ की, बडे ढ़ब से बनाई है ।।
जगत मे पेड़ पौधे ,जीव जन्तु सब बनाई है ।
विविध प्रकार के सब जानवर,उसने बनाई है ।।
उसी सब जानवर में एक ,मानव भी बना डाली।
पर हर जीव से ज्यादा ,इसी में ज्ञान दे डाली ।।
इसी सब ज्ञान के कारण , मानव श्रेष्ठ कहलाता।
अपनें से बहुत बलवान को भी,बस में कर लेता।।
पर कुछ विकृति उनके,मस्तिष्क मे समाहृत हो गये।
मानव ही मानव जीव का ,शोषक प्रवल फिर हो गये।।
फलस्वरूप मानव टूट कर ,विभक्त टुकड़ों में हुए।
बासट सौ लगभग जातियाँँ,उसी से निर्मित हो गये।।
मिलनें न पायें फिर कभी,साजिश भी कुछ ऐसा रचा।
उससे प्रभावित सब हुए, कोई अछूता न बचा ।।
रोग जबतक लोग से , निकल नहीं यह पाएगा।
विकास में बाधक बना यह , सर्वदा रह जायेगा ।।
रे मानव सोंच तो इतना, तूँनें क्या ये कर डाला ।
प्रकृति से ज्ञान पा इतना,कितनी भूल कर डाला ।।