सब तो खुद ही हैं दुखिया.

किसको दर्द सुनाऊँ अपना,सब तो खुद ही हैं दुखिया।
पूरी दुनिया भरी पड़ी है,हर ओर भरे दुखिया-दुखिया।।

देख पूछकर स्वयं लोग से,अधिकांश कहेगें मैं दुखिया।
इस मृत्युलोक में रहते जितने,सबके सब रहते दुखिया।।

माया का है यह मेला,जितनें दिखते,सबके सब माया।
कब आयेगें कब जायेगें, हरकत करती रहती माया ।।

कहते लोग दर्द घटता कह, लोगों को सुनाने से ।
पीडा़ कम होती थोडी कुछ,मरहम को वहाँ लगाने से।।

साथ समयके बदल गये सब,अब ऐसा कभी नहीं होता।
रगडेगें नमक उस घाव पर ,जिससे दर्द अधिक होता।।

दे दे अवसर ,दवा बोलकर,जहर की सूई दिला देगें।उसी दर्द के नामपर, काम तमाम करा देगें ।।

बोझ नहीं अब घटता है, कह कर इसे सुनाने से। बढ जायेगी आफत ज्यादा,अच्छा है चुप रह जानें से।।

बचाहुआ कमस्नेह बहुत,लोभ लालचने उसे दबोच लिया।
मानव के पावन मन पर इसने,अपना आधिपत्य किया ।

गलत कराने की प्रवृत्ति, मानव के मन में भर डाला ।
अतिपावन निर्मल मानव दिल,कोभी कलुषित कर डाला।

मानव को दानव कर डाला,उसका पतन करा के ।
मानव ही दानव बन जाता, नैतिकता अपनी खो के।।

भला बुरा कोई जन्म नलेता,आकर धरती पर बन जाता
रहता जैसा परिवेश में, असर उसी का पड़ जाता ।।

सब तो खुद ही हैं दुखिया.&rdquo पर एक विचार;

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