आ गयी उषा.

गयी निशा आ गयी उषा,सब दूर हुई अब अधिंयारी।
तम का अब साम्राज्य मिटा,पड़ी उषा उनपर भारी ।।

बिछा गयी थीअवनी तल पर,निशा चादर काली अपनी।
थे सबके सब ओझल उसमें,लिपटे,सिमटे सूरत अपनी।।

दूर हुई अंधियारी काली,तम का अवनी से राज हटा।
टिमक रहे थे तारे नभ में,उन तारों का साम्राज्य हटा।।

अवनी तल की ओझल चीजें, पड़ने लगी दिखाई।
मानों मिटगयी,दुख की घड़ियाँँ,सुख की घड़ियाँँ आई।।

प्रफुल्लित दिखते हैं सारे,प्रफुल्लित सब लोग लुगाई।
थके हुए जीवन मे फिरसे, नयी चेतना जग आई ।।

पुनः रग-रग में जीवों के,उत्साह नया जग आया ।
यौवन में कुछ करनें का जज्बा,फिर से है भर आया।।

निशा दिवस का क्रम सदा ,चलता ही जाता रहता है।
सुख-दुख जैसे मानव जीवन मे, आता जाता रहता है।।

निशा-दिवस का गमन आगमन,जितना जीवन में होताहै।
गिनती उसकी उस मानव का,उसका आयु कहलाता है।।

करना क्यों चिंता, निशा दिवस काउसे अविरल चलनाहै।क्षण प्रतिक्षण जो बीत रहा उसे, लौट नहीं आना है ।।

चला न जाये ब्यर्थ समय, ध्यान सदा यह देना।
हर पल का हो इस्तेमाल , गाँठ बाँध यह लेना ।।

उषा,मध्यान्ह,संध्या,निशा का,भी कोई ध्यान नहीं देना।
ये नामकरण मानव कर रखा,अपना कर्म किये जाना ।।

कर्म-सुत्र आवद्ध सूर्य का, नियम बना होता है ।
नहीं पल भर अपनें पथ से, वह विचलित होता है ।।