ढली जवानी वृद्ध हुए कब,बात समझ नहीं आती है।
अंकल से बाबा जबबोले,कुछ बात समझ में आती है।।
जीवन की गाड़ी क्षण*प्रतिक्षण,आगे बढ़ती जाती है।पल^पल,क्षण क्षण,आयु जीवोंकी,घटती चलती जातीहै।
परिवर्तन पनका कब कैसे,हुआ न इसका ज्ञान किसीको
कबआता कबआ चल देता,नहीं तनिकभी भान किसीको
नहीं एहसास बदलने का,कभी किसी को हो पाता ।
शनै शनै सुनता लोगों से,बिश्वास न पर जल्दी होता ।।
समय बहत लगता दिल को,स्वीकार इसे करने मेंं ।
लगता कुठार का वार सहन,करनें की आदत होने में।।
ढेर सहनशक्ति लै कर,मानव धरती पर है आया ।
शायद इस शक्तिकारण ही, मानव श्रेष्ठ कहाया ।।
अहम रोल धीरज का होता,जो मानव में केवल होता।
वन्यप्राणी में धीर कहाँ, बस उतावलापन होता ।।
मानव था पर रहा नहीं अब,बातें थी ये कल की ।
कितनी दुनिया देख चुके,कितना दमखम है किनकी।।
बाँट रहे हैं जनश्रुति से,ज्ञान सभी जन जन में ।
नहीं हुआ था ज्ञान लिपी का,तब से जनजीवन में।।
बडे वृद्ध थे नित्य सुनाते,सन्ध्या को कथा कहानी ।
मनोविनोद बच्चों का करते, रहते दादा नानी ।।
‘फिर इसके बाद’की जिज्ञासा, बच्चों में आ जाती थी।
हर ज्ञान कथा में,डाल डाल,बच्चों मे दी जाती थी।।
जड़-धर मानव वृक्ष का , यही वृद्ध मानव होता ।
फल-फूल, कोमल डालों में ,अनवरत नया जीवन देता।
कहाँ नजर जाती दुनिया की,पेडों की जड़-धर पर।
नजर सदा जातीहै उनमें, लगे जो फूल फलों पर ।।