मुक्तक.

      (01)

भरोसा तोड़ते फिर भी, भरोसा करना पड़ता है ।

इनके टूट का पीडा़ , सहन भी करना है ।।

भरोसे के बिना दुनियाँ,कदम भर बढ़ नहीं सकती।

कदम बढता कभी आगे ,,भरोसा पर ही बढ़ता है।।

        (02)

कवि की कल्पना से भी ,अनोखी चीज कुछ होती।

नहीं देखा किसी ने है, ऐसी चीज भो होती ।।

अनेकों रत्न हैं ऐसे , खुदा के ही खजाने मे ।

आँखे देखती फिरभी नहीं , बिश्वास है करती ।।

        (03)

गगन ही फूल बरसाता , गगन ही शूल बरसाता ।

मही पर कौन क्या करता सबों का ख्याल भी रखता।।

कहते रोपता है जो , उसे ही काटना पडता ।

अपने किये का फल, उसे ही भोगना पड़ता ।।

        (04)

दौलत मंद दौलत के सहारे ,क्या न करवाते ।

दौलत से बना कर ताज , रौशन नाम करवाते।।

मुमताज कितनी दफन हो गयी,कब्र में अपनी ।

न कोई नाम लेता है , न मजार बनवाते ।।

     (05)

दर्द केवल ही नहीं दी, सीने को छलनी कर दिया।

सिर्फ तोड़ी ही न दिल को ,चकनाचूर कर गयी ।।

बेरहम, बेदर्द तुम कुछ ,इस कदर ठोकर लगायी।ँँव

हुई चेतना काफूर ऐसी, लौट फिर वापस न आयी।।

    ( 06)

बिश्वास भी करता नहीं दिल, दतेरी बे-वफाई पर।

सहमत हूँ बेशक माननेको ,तेरी दी गई सफाई पर।।

आँखें धोखा दे गयी हो , मानता हूँ वक्त पर ।

क्या करे अब दिल बेचारा,भरोसा न अपनें आप पर।।

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