आज का लक्ष्मण

रामायण में भरत-लक्ष्मण का,नाम सुना होगा।
अनुज राम का थे दोनों, ये कथा सुना होगा।।

अनन्य प्रेम था चारों में,अलग उदरों से जन्में थे।
चारों भाई आपस मे ,अगाध प्रेम भी करते थे।।

तीनों भाई सदा राम को , देते थे भरदम सम्मान।
राम अग्रज औरपिता थे दोनों,उनके खातिर एक समान।

अनुजों ने खुद कष्ट झेल, सेवा अग्रज का थे करते।
राजकुमारों अग्रज के संग मे,बन-बन भी भटका करते।।

रुकते थे जहाँ कहीं, भैया का चरण दबाते थे ।
अपने भैया की सेवा करके,सुख सदा स्वर्ग का पाते थे।

तुलसी दास की रची कथा,सतयुग का पूर्ण बखान कियाऊपरी
कलियुग में उनके ही पाठक,सारा उल्टा काम किया।।

खोज खोज थक जायेंगे, लक्ष्मण भरत नहीं मिलता।
चरण दबाना बहुत दूर,सीधा मुँह बात नहीं करता।।

कहाँ गया वह भातृ-प्रेम ,कहाँ गया माँ-पितृ प्रेम।
कहाँ गया प्रजा -प्रेम, रह गया आज कलियुगी-प्रेम।।

अवसर पर काम न आयेगें, तुझे छोड़ निकल जाये।
जब खोजोगे खडे. सामनें,दुश्मन के पक्ष मे पायेंगे।।

तेरा गुप्तभेद बतलायेगे, हो खडा़ तुम्हे पिटवायेगें ।
ये कलियुगिया बन्धुगण हैं, ऐसा ये रूप दिखायेगें ।।

तुम सा खून भरा उसमें, रूप तुम्हारा मिलता है।
गुण में पर ठीक रहेगें उल्टा,बसइसे छोड़सब मिलता है

युग सदा बदलता जाता है,सतयुग.से कलियुग आता है
अब कलियुग का प्रभावदेख,दुश्मन संग,लझ्मणभ्राता है।।

लक्ष्मण अब लक्ष्मण रहानहीं,सहारा बन कर खडा़ नही।
तेरा ही कदम उखाडेगें, देगा वह तेरा साथ नहीं।।

लक्ष्मण ,तेरा दोष निकालेगा, कर्तव्यच्यूत बतलायेगा ।
जो भला कियासब भब भूलभाल,ढरों इल्जाम लगायेगा।।

चुपचाप लोग सब सुन लेते,समझते सब पर चुप रहते।
ब्यर्थ मोल झगड़ा लेनै से, चुप रहने को बेहतर कहते।।

ब्यथा अपना समझायेंगे, अग्रज को झूठ बतायेगें।
बचपन से कितना प्यार दिया ना कभी जुबां पर लायेगे।

बूढा अब अग्रजराम हुआ,करना मुश्किल अबकाम हुआ।
चुल्हाचक्की सब अलग किया,लक्ष्मणभाई का राजहुआ।

अब राम तो भूखों मरता है,लक्ष्मण जमभोजन करता है
देख विवसता राम का,लक्ष्मण ही उस पर हसता है।।

यह कथा है कलियुग राज का,लक्ष्मणभाई भी आजका।
पर कथा पुराने राज काअब समय खत्म है आज का।।

हर लोगों की भरमार है दुनियाँ

अच्छे बुरे हर लोगों की , भरमार है दुनियाँ।
गर संग दोनों ना रहै, तो बेकार है दुनियाँ ।।

अच्छे-बुरे हरलोग, दुनियाँ में रहा करते ।
बहुत ज्यादा बडा हैं कुछ,कुछ छोटा रहाकरते।।

सबों की सोंच अपनी है, सबों का ढंग अपना है।
तरीका रहन-सहन का,सबों का अलग अपना है।।

भाषा अलग सब की ,ढंग सब खान -पान का ।
रश्में रिवाजें भी सबों का , अलग अपना है ।

अलग है परम्परा अपनी ,हर क्षेत्र में अपना ।
जाते दूर क्यो ज्यादा , यहीं तो देश अपना है।।

नहीं हम मानते केवल, बसुंधरा अपना ।
ये सारा ब्योम क्या अंतरीक्ष भी,लगता ही अपना है।

यही संदेश देता है, भारत विश्व को अपना ।
‘बसुधैव कुटुम्बकम’भावना ,यहाँ हर लोग रखताहै।।

मनिषियों ने दिया ये ज्ञान था, पूरे ही भारत को।
सब लोग में अब बाँटना , कर्तब्य अपना है ।।

जन्म से आता नहीं कोई , सीख दुनियाँ में ।
बनता जो बना देता उसे , परिवेश अपना है ।।

विविध रंगों में हैं रंगे यहां, अजीब ये दुनियाँ ?
नजारायें दिखाती क्या कभी है, आज ये दुनियाँ।।

अदा हूँ शुक्रिया करता ,जिन्होनें है रची दुनियाँ ।
प्रकृति हम सब नमन करते ,बनाई खूब है दुनियाँ।।