कोई चन्द्रमुखी उतरी गगन से,आई बस मेरे लिये।
कैसे करूँ सत्कार उनका,क्या करूँ इनके लिये ।।
तूनें किया एहसान मुझ पर,छोडा गगन मेरे लिये।
थी बात जन्नत की निराली,उतरी यहाँ मेरे लिये ।।
बसुंधरा भी त्याग सकती, तुम सनम मेरे लिये ।
झेल सकती कष्ट अनेकों, बेझिझक मेरे लिये ।।
हूर थी जन्नत की प्यारी, दिल रिझाने के लिये ।
ले दिल हथेली आयी तूँ, मुझ से ही मिलने के लिये।।
क्या करूँ मैं पेश तुमको, एहसानमंदी के लिये ।
दिल के सिवा कुछभी नहीं, रखा बचा तेरे लिये।।
करता हवाले आज इसको , ऐ सनम तेरे लिये ।
स्वीकार कर मेरा समर्पण , ऐ सनम मेरे लिए ।।
वाह जनाब क्या खूब लिखा है
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शुक्रिया श्रीमान आप को
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धन्यवाद,बहुत बहुत.
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