जीवन का बसंत.

जब लोगों का रग-रग,प्रफुल्लित स्वयं हो जाता है।
हर जीवों के रोम-रोम मेंं,नव-यौवन भर जाता है।।

पशु-पक्षी क्या हर प्राणी ,छोटे हों या हों बहुत बडे।
प्रणयक्रीड़ा का मधुर नशा,जब सबपर छा जाता है ।।

शायद ऐ दुनियाँ वालों, ये समाँ कभी जब आता है।
सच मानों तो जीवन का, बसंत यही कहलाता है ।।

इसे माह दिवस से , बाँध रहे क्यों ?
जबरन आजादी , छीन रहे क्यों ??

चलनें दो मर्जी से उनको,अपनी ऊँगली डाल रहे क्यो?
अपनी इच्छा थोपन उनपर,कर रहेरंग में भंगउन्हें क्यों??

सब लूटरहे मस्ती जीवन की,जीवन कासब रस पाता है।
मतबन दर्शक होजा शामिल,क्या नहींबसंत तुझे भाताहै?

कहते ‘बसंत न आता स्वयं”,उसे लाना पडता है ।
मन मस्तिष्क अनुरूप उसी के, बनवाना पड़ता है।।

न कोई समय होता बसंत का ,उसे बनाना पड़ता है।
ठहरायेंगे जितनें दिन तक ,उन्हेँ ठहरना ही पड़ता है।।

निर्धारण करना है खुद ही,कब लाना कब ले जाना ।
जब मर्जी हो उसे बुला लो, मर्जी हो वापस कर देना।।

तेरी ही ईच्छाशक्ति की, वह अनुचर होता है।
सत्कार तेरा ही करनें में , लगा हरदम रहता है ।।

जब चाहे उसे बुला लेना है, जी चाहे उसे हटा देना ।
जैसी तेरी हो मर्जी ,उसको भी वही बना देना ।।

जो दिल के होते बादशाह, उनका बसंत न जाता है।
बन सदा बहार छाया रहता ,हर्षित सदा बनाता है।।