चोट अपनों से खायी है.

गजब की चोट जोरों की,कोई दिलपर लगाई है।
बेरहम गैर न कोई, चोट अपनों से खायी है।।

चोट ऐसी लगी कस कर,तिलमिलाता रहा अबतक।
गई सुध-बुध मेरी ऐसी,न अबतक लौट आयी है।।

क्या करूँ शिकवा, किसको दिखाऊँ दर्देदिल अपना?
हद जो पार दी करने, समाँ खुद ही बनाई है ।।

जरूरत से अधिक ज्यादा,कुछ अच्छी नहीं होती ।
यहीं पर चूक हुई मेरी,सितम जो बन के ढाई है।।

गलती की सजा हरलोग को,मिलती तो है निश्चित।
कभी जल्दी ,कभी कुछ देर से मिलती तो आई है।।

कहाँ पर मानता मानव,नहीं वह बाज आता चूक से।
महज बातों को कर चिकनी,सभी कुछ होती आई है।।

बहुत ही दर्द करता है, अपनों की दिये चोटें ।
विवसता क्या न करवाती, नजरें उठ न पाती है ।।

सहन करने की भी कोई , एक सीमा हुआ करती।
सीमा लाँघनें वाला, सदा ही मुँह की खाई है ।।

थोड़ा बर्दास्त करता दिल, परायों से मिली पीडा ।
अपनों से मिली हुई दर्द,सहन कोई कर न पायी है।।

थोडा बर्दास्त करता दिल, परायों से मिली पीडा़ ।
अपनों से मिली हुई दर्द,सहन कोई कर न पाई है।।

बडे अरमान से अपनों को, दिल ये बाँध रखते हैं।
बन्धन टूटने का दर्द, नहीं क्या बेवफाई है ??