आया सावन रस बरसाते.

आया सावन रस बरसाते, भींग गया तन मन सब का।
हरियाली छा गयी धरा पर,खुशियाँ छायी मनपर सबका।

मिली निजात सब को गर्मीसे,झुलसते मनको चैन मिला।
सूख रहे पेडों को फिर से,नवयौवन नया बहार मिला।।

हरे रंग की नई दुपट्टा, हरे हरे परिधान पहन ।
नाच उठा हो आह्लादित, सारा वन सारा उपवन ।।

नयनाभिराम हर ओर लगे,धरती लगती दुल्हन सी ।
क्या मनोहारिणी दृश्य धरा का,आकर्षित करती सी।।

शितल वायु का मंद झकोरा , भाता है तन मन को।
बदल जायेगा मौसम इतना ,विश्वास न होता मन को।।

प्रकृति का बदलाव हमेशा , चलता ही रहता है ।
मौसम आता है जाता है ,क्रम होता ही रहता है ।।

प्रकृति की बदलाव कभी तो , इतना हो जाता है।
परिकल्पना मानव मस्तिष्क, जितना न कर पाता है।।

कहाँ गया विभत्स रूप ,ज्वाला प्रचंड उस गर्मीका।
सब हो गये काफूर, कहाँ से आया है रुख नरमी का।।

विरान पडी धरती पर फिर से,हरियाली का राज हुआ ।
बीत गये दिन दुखके मानों,सुखका सपना साकार हुआ।।

जिधर चाहिए नजर घुमा लें, हरियाली दिखती है ।
सूखे पेडों पर फिर से , खुशियाँ ही दिखती है ।।

गर्मी से भयभीत लोग,जो बैठे थे लुक छिप कर ।
आये बाहर सभी घरों से ,उत्साह नया फिर ले कर।।

स्वागत करते हैं सावन का ,दिल मे भर अनुराग लिये।
नर नारी सब सचर अचर,भर कर दिल में प्यार लिये।।

मुक्तक.

      (01)

भरोसा तोड़ते फिर भी, भरोसा करना पड़ता है ।

इनके टूट का पीडा़ , सहन भी करना है ।।

भरोसे के बिना दुनियाँ,कदम भर बढ़ नहीं सकती।

कदम बढता कभी आगे ,,भरोसा पर ही बढ़ता है।।

        (02)

कवि की कल्पना से भी ,अनोखी चीज कुछ होती।

नहीं देखा किसी ने है, ऐसी चीज भो होती ।।

अनेकों रत्न हैं ऐसे , खुदा के ही खजाने मे ।

आँखे देखती फिरभी नहीं , बिश्वास है करती ।।

        (03)

गगन ही फूल बरसाता , गगन ही शूल बरसाता ।

मही पर कौन क्या करता सबों का ख्याल भी रखता।।

कहते रोपता है जो , उसे ही काटना पडता ।

अपने किये का फल, उसे ही भोगना पड़ता ।।

        (04)

दौलत मंद दौलत के सहारे ,क्या न करवाते ।

दौलत से बना कर ताज , रौशन नाम करवाते।।

मुमताज कितनी दफन हो गयी,कब्र में अपनी ।

न कोई नाम लेता है , न मजार बनवाते ।।

     (05)

दर्द केवल ही नहीं दी, सीने को छलनी कर दिया।

सिर्फ तोड़ी ही न दिल को ,चकनाचूर कर गयी ।।

बेरहम, बेदर्द तुम कुछ ,इस कदर ठोकर लगायी।ँँव

हुई चेतना काफूर ऐसी, लौट फिर वापस न आयी।।

    ( 06)

बिश्वास भी करता नहीं दिल, दतेरी बे-वफाई पर।

सहमत हूँ बेशक माननेको ,तेरी दी गई सफाई पर।।

आँखें धोखा दे गयी हो , मानता हूँ वक्त पर ।

क्या करे अब दिल बेचारा,भरोसा न अपनें आप पर।।

रे बदरा, जुर्म करत तू काहे?

पिया मेरे परदेश बसत हैं, अगन लगावत काहे ?
बहुत कठिन से आएल निंदिया,शोर मचावत काहे??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

बेचैनी में कट गेल रैना,अखियन बिन झपकाए।
शोर मचा के तू, रे जुर्मी, झपकी तोड़े काहे ??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे?

काहे घर्र-घर्र करत,दामिनी रह-रह के चमकाये।
बेचैनी में डूबल दिल, भयभीत बनावत काहे ??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

कौन अदावत तोहरा हम से,चाहल वही चुकावल।
हर लेहल सब चैन जिया के,भेल जुर्म यह काहे ??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे?

अँखियन से आँसू टपकत हे, जैसे जल तू बरसाये।
रोकल चाहीं रुकल न बैरी, मानत नहीं तू काहे ??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

असर प्रेम के ऐसो तुम में, मनवाँ नाचे सब काहे ?
मोर-मोरनियाँ नाचे बन में, देख देख तोहे काहे ??
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

सावन के हे रात नशीली, साथ न मनभावन हे ।
बीत जाये दिन चाहे जैसे, रात न बीतल पाये ।।
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

प्रियतम के जा के तूँ कह द, हमरा दर्द सुना के।
कुछ पल ही है जीवन बाकी,मिल जा थोड़ा आ के।।
रे बदरा, जुर्म करत तू काहे ?

दिल भी अजीब चीज है.

दिल भी अजीब चीज है, क्या सोंचता क्या चाहता।
है क्या संजो रखे हुए, केवल वही बस जानता।।

अरमान पैदा रोज करना, नित्यदिन का काम इसका।
क्या क्या उम्मीदें है जगाता,है जगाना काम इसका ।।

अथाह सागर मे सदा, गोते लगाना काम इसका ।
अंतरीक्ष के हर छोड़ पर, भी पहुँचना काम इसका।।

चंचल अति हर चीज से, द्रुतगति से चाल चलता।
पलभर में जितना लाँघ दे,उतना न कोई लाँघ सकता।।

भ्रमण भी हर लोक का,पलभर में कर सकता है ये।
कल्पना की आँख से सब, देख भी सकता है ये।।

दीदार भी संसार का, कुछपल में कर सकता है ये।
संसार क्या ब्रह्मांड भी,पल भर मे दिखलाता है ये।।

लगाम भी इसपर लगा दे, साधना से साध कर।
साधक बडा़ बेजोड़ होगा,रक्खे उसे जो बाँध कर ।।

मन को अपने बस में कर ले, वह बडा़ बेजोड़ होगा।
सामान्य मानव होन सकता,फरिश्ताओं का सिरमौर होगा।

अदृश्य शक्ति से भरा, बस सिर्फ मानव रूप में ।
अवतरित होता मही पर, वह भी कभी विद्रूप मे।।

बिचार को उत्पन्न करना, ही तो मन का काम है।
फिर हर तरह से सोंचना, मस्तिष्क ये करता काम है।।

काम जब तक दिल करेगा, जिन्दगी आवाद होती ।
काम करना छोड़ देगा, जिन्दगी भी खत्म होती।।

दिल करेगा काम कब तक, है कोई जो जानता।
देख भी सकता कठिन से, पर उसे सब मानता ।।

मुक्तक.

  .      (01)

वक्त जाने कब किसी को, क्या बना देता ।

असम्भव को प्रभाव से, सम्भव बना देता ।।

बडे सम्राट को भी ताज से, बेताज कर देता।

पड़े हों धूल में इन्सान के सर,ताज रख देता ।।

       (02)

जो धनुष छोड़कर वाण निकलते,वापस कभी नहीं आते।

निकली बातें लौट न पाती, चाहे जिह्वा ही काटे ।।

दोनों ही घाव बनाते गहरा, एक तनपर एक मनपर।

तन का घाव कभी भर सकते,मन का कभीनहीं भरते।।

         (03)

खूब तौल लें मन में पहले, फिर अपना मुख खोलें।

मत ब्यर्थ बात में समय ब्यर्थ कर,बातें ब्यर्थ न बोलें।

हित अनहित दोनों ही बनते , अपनी ही बातों से ।

अतः बोलने के पहले खुद ,मन में बातें खुद तौलें ।।

     (04)

जो जैसा दिखता दूर से,रहता भी वैसा तो नहीं ?

कोई कहता बडे गुरूर से,कर देता ही वैसा तो नहीं।।

मृगमरीचिका देख कर,खाते धोखा क्या लोग नही?

समझ कर पानी दौड़ते ,पर पानी रहता तो नहीं ??

       (5)

आज दुनियाँ में, बहुत कम मीत मिलते हैं ।

समझते मीत जिनको, अधिकांश वे अनहीत होते हैं।।

जब तकलाभ मिलता, मित्रता का ढ़ोग रचते हैं ।

उम्मीदें खत्म होती , दोस्ती को खत्मकरते हैं ।।

        (06)

किसी को मित्र कह देना, बहुत आसान होता है।

पर कह कर निभा देना ,तो दुष्कर काम होता है।।

निभाई दोस्ती अपनी, कम एकाध होता है ।

मिलते कोयले के संग ‘हीरा’,जब इत्तिफाक होताहै।।

पल दो पल साथ निभाना है.

हम पल दो पल का मीत बनें,पल दो पल साथ निभाना है।
पल दो पलमें बिछड़ेगें फिर,मिलने का कौन ठिकाना है।।

बड़े प्रेम से मिल लो सब से,मन मलीन क्यों करना है।
दिल खोल के रखदो आगे उनके,झिझक तनिक ना करना है।।

जीवन के इस मेले मेंं, कुछ देर ही साथ निभाना है।
अलग होंगे सब के ही सब,कुछपल ही तो संग रहनाहै।

हम पथिक मात्र इस जगती मे, कही रुककर रात बितानी है।
चलते चलते पग थक जाते,बस थोडा रुक जाना है।।

सारी जगती ही है अपनी,बना हर ओर बसेरा है।
रुक कर विश्राम किये लेते,सुबह आगे बढ़ जाना है।।

पल दो पल काबिश्राम मुझे, और न ज्यादा रुकनाहै।
यह तेरा है वह मेरा, यह तो मात्र फसाना है।।

दुनियाँ के हर लोगों में,तेरा मेरा का वहय घुसा है ।
मालूम तो है बिश्राम नहीं, यहीं छोड सब जाना है।।

नाटक कै हम पात्र मात्र,जीवन का रोल निभाना है।
पटाक्षेप होते हैं ज्यो ही,खेल खत्म हो जाना है।।

सूत्रधार के हाथों सब कुछ,जो चाहे नाच नचाता है।
जबतक चाहे वह नाच नचाता, चाहे पर्दा गिर जाना है।

क्या करना है उसे पता है,आगे क्या करवाता है।
क्यों मैं ब्यर्थ करूँ चिंता,काबिल है जो करवाता है।।

हम सभी मात्र है कठपुतली, नाचूँ जैसा नचवाता है ।
सूत्रधार अपनें हाथों, चाहे जो वही रराता है ।।

हम पल दो पल का मीत बने,पल दोपल साथ निभाना है।
पल दो पल में बिछड़ेगें फिर,मिलने का कौनठिकाना है।।

क्या देश तेरा आजाद हुआ?

सोंचो भारत के नागरिक,क्या अपना देश आजाद हुआ?
बीते सत्तर वर्षो में , हमसे क्या क्या काम हुआ ??

मेरे संग में और देश कुछ, ब्रिटिश से आजाद हुआ।
कहाँ पहुँच गये अन्य देश ,और मेरा क्या हाल हुआ।।

कुछतो समय निकालो सोंचो,क्या खोया क्याप्राप्त हुआ।
दिलवा आजादी चले गये,क्या मकसद उनका पूर्ण हुआ।

गर्व मुझे होताहै उनपर,श्रद्धा से ग्रीवा झुका हुआ ।
आहूति दे पायी उससे जो,क्या स्वप्न तेरा साकार हुआ?

नहीं हुआ साकार अगर तो,सोंच कहाँ क्या चूक हुआ।
चूक उधर जो सुधर गया तो,सपना भी साकार हुआ।।

भ्रष्टाचार अब फैल चुका है ,मानव के रग-रग मे ।
कहीं थोडा तो कहीं अधिक,पर बैठ गया अब सब मे।

घुन बनकर सब के रग में, घुसकर बैठ गया है।
कुतर रहा है अन्लर-अंदर,सब में यह फैल गया है।।

सर्वांगीण विकास हो,न्याय साथ में,ऐसा समाज गढना होगा।
ऐ युग की नयी पीढियां, यह कर्म तुझे करना होगा।।

सब भेदभाव से ऊपर उठ,यह कार्य तुझे करना होगा।
तुम सुधरोगे,जग सुधरेगा, आगे बढ़कर आना होगा।।

उठकर नवनिर्माण करो,समाज को फिर से गढना होगा।
ब्याप्त सभी भ्रष्टाचारों से ,तुमसब को लड़ना होगा।।

विलम्ब न कर ऐ नयी पीढियों, इस भूत को तुम्ही भगा सकते।
अऩुशासन के कोडे मारमार,देश को त्राण दिला सकते।।

भवसागर पार करा दे नाविक.

भवसागर पार करा दे नाविक, सब को पार लगाते हो।
मुझे उस तट पर पहुँचा दो,सबको तुम ही पहुँचाते हो।।

अनजान डगर का हूँ मैं राही,तुमतो इसका निर्माता हो।
कहाँ रहस्य क्या छिपा दिया,तूँहीं तो केवल ज्ञाता हो ।।

तुम भवसागर का निर्माता, तूने संसार बनाया है।
ब्रह्मांड रचा,कुछ और बहुत,कोई समझ न अबतक पाया है।।

ऐ प्रकृति तेरा धन्यवाद, संसार तुम्हारी ही रचना ।
क्या क्या चीज बनाई तूँने,मुश्किल है यह भी कहना ।।

जितनी भी चीजें रच डाली,मुश्किल है गणन उसेकरना।
उपयोगी तो हे,मुश्किल पर, क्या उपयोग इसे करना ।।

पर ब्यर्थ नकोई चीज बनी, इसका भान सदा रखना ।
उपयोगी है हर चीजे सारी, ध्यान सदा देते रहना ।।

अतरीक्ष की चीज बनाई,धरती की हर चीज बनाई ।
सागर के अन्दर और बाहर,तूनेबिचित्र सबचीज बनाई।।

बहुत ज्ञान भर तूने, एक मानव जीव बनाया है।
इसने तेरा निर्माण अभीतक,समझ बहुत कम पाया है।।

ऐ प्रकृति आसान नहीं, तेरे गूढ़ रहस्य पाना ।
समय लगेगा और अभी,फिर भी है कठिन समझ पाना।

पर इतना तो तय है, कोई गुप्त शक्ति है अनजाना।
पर कौन शक्ति ,कैसी शक्ति,अति मुश्किल इसे बताना।

हरपल मे काम चला करता,पर लुप्त सदा रहते हो।
ऐ संचालक तुम ही जानो,क्यों ऐसा करते हो ??

तुम पार लगाते भवसागर,रह गुप्त नजर नहीं आते हो।
ऐ शक्तिमान ऐसा क्यों करते,छुपकर क्यो वाण चलातेहो

भवसागर पार करादो नाविक, सब को पार कराते हो।
मुझे उस तट पर पहुँचा दो,सब को तुम ही पहुँचाते हो।।

ऐ मौसम की पहली बारिश.

ऐ मौसम की पहली बारिश, कैसी सुगंध ले आई तुत।
तप्त तवा सी अवनीतल थी,थोडी प्यास बुझाई तुम।।

बेचैन सभी थे बिन बिरिश,जीवजंतु सब सचर अचर।
मत पूछो थे क्या आलम,सब पर ही थी गर्मीकी कसर।

कुछ लोग त्याग घर को बैठे थे,पेडों कीछावोंमें आकर।
बिता रहे थे दुपहरिया, पा रहे सुकून यहां आ कर ।।

बेचैन चैन पाने खातिर, थे बैठे पेडों के नीचे ।
कभी नीम की छावों में, कभी बरगद के भी नीचे।।

निहार रहे थे दृग ब्याकुल,आसमान में बादल को ।
त्रास मिटानें की आकुलता, खोजरही थीब्याकुल हो।।

बहुत आरजू और मिन्नत की,आसमान मे बादल आया।
रिमझिम-रिमझिम बूँदे उनकीसारे लोगों को हर्षाया।।

टिपटिप की आवाज धरापर, पानी की बूँदें करती ।
नभ में बादल की गर्जन,रह-रह कर तर-तर करती ।।

काली राथतों में बिजली की ,चमक भयभीत बनाती है।
फहले तो अपनी चमक दिखाती,घरघर आवाजें आती है।

गर्मी से मुक्ति पाई कुछ, तनमन को थोडा चैन मिला ।
झुकते से पेडों पौधों मे, नवसृजन हुआ बहार मिला ।।

नवजीवन का आभास हुआ ,पहली बारिशकी बूँदों से।
उत्साह नया फिर जग आया,मौसम की पहलीबूँदों से।।

प्यासे को पानी मिल जाता ,बुझती उम्मीद जगा देता।
मरते को जीवन मिल जाता,फिर नव उत्साह जगादेता।।

‘जल ही जीवन’है,इससे ही,जग कीसारी हरियाली है।
जल से ही चलती दुनियाँ, वरना ये खत्म कहानी है।।

जल का चक्र चला करता है,बारिश संचालन है करता।
सागर से लेता है जल को,बितरण सब को है करता।।

आज का लक्ष्मण

रामायण में भरत-लक्ष्मण का,नाम सुना होगा।
अनुज राम का थे दोनों, ये कथा सुना होगा।।

अनन्य प्रेम था चारों में,अलग उदरों से जन्में थे।
चारों भाई आपस मे ,अगाध प्रेम भी करते थे।।

तीनों भाई सदा राम को , देते थे भरदम सम्मान।
राम अग्रज औरपिता थे दोनों,उनके खातिर एक समान।

अनुजों ने खुद कष्ट झेल, सेवा अग्रज का थे करते।
राजकुमारों अग्रज के संग मे,बन-बन भी भटका करते।।

रुकते थे जहाँ कहीं, भैया का चरण दबाते थे ।
अपने भैया की सेवा करके,सुख सदा स्वर्ग का पाते थे।

तुलसी दास की रची कथा,सतयुग का पूर्ण बखान कियाऊपरी
कलियुग में उनके ही पाठक,सारा उल्टा काम किया।।

खोज खोज थक जायेंगे, लक्ष्मण भरत नहीं मिलता।
चरण दबाना बहुत दूर,सीधा मुँह बात नहीं करता।।

कहाँ गया वह भातृ-प्रेम ,कहाँ गया माँ-पितृ प्रेम।
कहाँ गया प्रजा -प्रेम, रह गया आज कलियुगी-प्रेम।।

अवसर पर काम न आयेगें, तुझे छोड़ निकल जाये।
जब खोजोगे खडे. सामनें,दुश्मन के पक्ष मे पायेंगे।।

तेरा गुप्तभेद बतलायेगे, हो खडा़ तुम्हे पिटवायेगें ।
ये कलियुगिया बन्धुगण हैं, ऐसा ये रूप दिखायेगें ।।

तुम सा खून भरा उसमें, रूप तुम्हारा मिलता है।
गुण में पर ठीक रहेगें उल्टा,बसइसे छोड़सब मिलता है

युग सदा बदलता जाता है,सतयुग.से कलियुग आता है
अब कलियुग का प्रभावदेख,दुश्मन संग,लझ्मणभ्राता है।।

लक्ष्मण अब लक्ष्मण रहानहीं,सहारा बन कर खडा़ नही।
तेरा ही कदम उखाडेगें, देगा वह तेरा साथ नहीं।।

लक्ष्मण ,तेरा दोष निकालेगा, कर्तव्यच्यूत बतलायेगा ।
जो भला कियासब भब भूलभाल,ढरों इल्जाम लगायेगा।।

चुपचाप लोग सब सुन लेते,समझते सब पर चुप रहते।
ब्यर्थ मोल झगड़ा लेनै से, चुप रहने को बेहतर कहते।।

ब्यथा अपना समझायेंगे, अग्रज को झूठ बतायेगें।
बचपन से कितना प्यार दिया ना कभी जुबां पर लायेगे।

बूढा अब अग्रजराम हुआ,करना मुश्किल अबकाम हुआ।
चुल्हाचक्की सब अलग किया,लक्ष्मणभाई का राजहुआ।

अब राम तो भूखों मरता है,लक्ष्मण जमभोजन करता है
देख विवसता राम का,लक्ष्मण ही उस पर हसता है।।

यह कथा है कलियुग राज का,लक्ष्मणभाई भी आजका।
पर कथा पुराने राज काअब समय खत्म है आज का।।