मैं तो हूँ, जल की धारा, निरंतर बहती रहती हूँ।
झेल सभी बाधाओं को, आगे बढ़ती रहती हूँ॥
पर्वत की ऊंची चोटी से, मैं, बर्फ पिघल बनती हूँ।
राह बनाती, खुद जाती, विश्वास स्वयं पर करती हूँ॥
बढ़ती जाती अविरल पथ पर, घुंस कर पर्वत के खोहों से।
स्वयं खोज लेती पथ अपना, भिड़कर हर अवरोधों से॥
चट्टानों से, भिड़ जाती, निर्भय हो, राह बना लेती।
हर-हर शोर मचाती हुई, अवनि तल पर छा जाती॥
मग में आए, पाषाण अगर, अवरोधक जो बन कर।
कंकर-बालू उसे बनाती, रगड़-रगड़, घिस-घिस कर॥
बड़े-बड़े वट वृक्षों की भी, नामोंनिशां मिटा देती।
तोड़-ताड़ डालों को इसके, धड़ को कहीं बहा देती॥
जीवन देती हूँ मैं जग को, मीठा जल देती पीने को।
फसल उगाता मेरा जल ही, देता जीवन जीने को॥
करती मैं उपकार सबों पर, बदले में क्या देते लोग।
दूषित करते जल मेरा, अमृत को गरल बनाते लोग॥
मैं चुपचाप सहन करती, नहीं कभी कुछ कहती हूँ।
अपने संतानों की कुमति पर, घुंटती-सहती रहती हूँ॥
भोगेगा पर स्वयं नतीजा, करनी का फल पाएगा।
नियम सदा चलता आया, जो बोयेगा, सो काटेगा॥