हे जगतनियंता ये तो बता ,क्या पडी़ जरूरत दुनियाँ की ।
क्या मकसद इस मे था तेरा, जटिलता इतनीभरने की ।।
विविध तरह की चीज बनाई, विविध रंग और रुप बनाई।
विविध ढ़ंग सब रहन सहन का, बडे़ अनोखे चीज बनाई।।
क्या मकसद था कुछ तो बोलो,खानपान सब विविध बनाई.
असंख्य तरह के जीवजन्तु,चालढाल भी विविध बनाई।।
बिन मकसद कुछ काम न होता, बिन मकसद कुछ बना न होगा ?
नहीं बनाने का भी मकसद,शायद कुछ होगा ही होगा ।।
पर जितनी तुम चीज बनाई, सब का बिनाश हो जाना है।
कुछ जल्दी कुछ थोडी़ देर से, रुप बदल ही जाना है ।।
ज्ञान भरा मानव मस्तिष्क मे, सारे जीवों से ज्यादा ।
निश्चित ही भार दिया होगा ,इस जीव को सबसे ज्यादा।।
पर क्या करना ?कैसै करना? शायद तूँ नहीं बताया ।
लाभ उठाया मानव इसका, अपना लोभ सधाया ।।
यों तो मानव निर्विकार-मन, ले कर ही आता है।
पर काम,क्रोध, मद ,लोभ इसे, अति गंदा कर देता हैँ ।।
ये चार विकार मिल कर मानव को,अति दूषित करदेता है।
निर्विकार मन में घुस उससे,गलत काम करवा देता है।।
पूरे समाज के ज्ञानवान की, नजरों से गिर जाता है।
निन्दनीय कर्मों से उनका , सदा अनादर होता है।।
ऐ निर्माता मानव को क्यों, चौराहे पर छोड दिया ?
मार्ग चयन करने का शायद,उसके विवेक पर छोड़ दिया।।
अपने विवक से खुद ही सोंचों, तुझे किधर अब जाना है?
सही मार्ग को खोज स्वयं ही, किसी जगह पर जाना है।।
बहुत उलझन है इस दुनियाँ मे, इससे ही तुझे गुजरना है।
सारी उलझन को सुलझा कर,आगे तुमको बढ़ जाना है।।