नर और नारी

नर तो होता सख्त ह्रदय ,नारी ममता की मूरत ।

मंदिर में बैठी जो देबी, तेरी ही ले सूरत ।।

पैदा कर पालन करना , बिपदा से उसे बचाना ।

चलना फिरना उसे सिखाना ,स्वच्छ बना कर रखना।।

स्नेह लुटाना अविरल उस पर , बोल-चाल सिखलाना ।

सभी तरह का ज्ञान बता कर ,बालक से बड़ा बनाना ।।

संस्कार से सिंचित कर, हर ढंग से सभ्य बनाना ।

प्रारंभिक ज्ञान को पूर्ण रूप से, खेल-खेल बतलाना ।।

दुनियाँ में रहने-सहने का , रीति-रिवाज बताना ।

ब्यवहार कुशलता उसे सिखाना, नेक इन्सान बनाना।।

सारे दायित्यों में नारी को , साथ सदा नर देता है ।

स्वयं परिश्रम कर नारी को , सारा साधन देता है ।।

उत्तम शिक्षा- दीक्षा का , इन्तजाम कर देता है ।

आगे उसे बढाने में , नर का हाथ ही होता है ।।

उपार्जन करना धन-साधन, नर का प्रायः है दायित्व।

धन-साधन को समुचित व्ययना, नारी का दायित्व॥

यही नहीं अब नारी, नर का और भी हाथ बँटाती है।

घर के अपने फर्ज़, साथ में, धन अर्जन भी करती है॥

सूझ-बूझ से जो नारी , है अपना फर्ज निभाती।

परिवार चमक जाता उसका, खुशियाँ तमाम घर आती॥

ऐसी ही नारी तो जग में , गृह लक्ष्मी कहलाती है ।

चाहे जैसा भी घर हो, खुद उसको स्वर्ग बनाती है।।

आदर्श वही होता समाज का , होता जहाँ नहीं तकरार।

दोनों अपना धर्म निभाये , जगमग होगा वह परिवार ।।

जीवन के इस गाडी के , नर-नारी दो चक्र समान ।

सुडौल रहें दोनो चक्के , सरपट दौड़ेगा जीवन यान ।।

 

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