होली के शुभ अवसर पर……..
घर से तो निकला था करने, महामूर्ख की खोज ।
मै तो भूल गया भैया , क्या कहते हमको रोज ।।
किया खोज सारी नगरी में , पीटा हमने ढोल ।
मिला न कोई मुझ से ज्यादा , जो होवे बकलोल।।
करता क्या , था काम कठिन , पर पूरा तो करना था।
माँग चाँग कर उसे कहीं से ,हाजिर तो करना था ।।
चला ढ़ूढ़ने उसे कहीं , सड़कों पर मारा -मारा ।
जिससे पूछूँ,तुम महा मूर्ख हो? उसने ही थप्पड़ मारा ।।
बुरा हाल , मुश्किल में था मैं, जो ठहरा बकलोल।
मैं ही तो था महामूर्ख, फिर कहाँ मिले बकलोल।।
फिर भी मैं ठहरा अहमक़, मैं अपना धर्म निभाया ।
जिस गदहे पर चढ़ कर आया, उसको पास बुलाया ।।
आयी सवारी ,मैं चढ़ बैठा , लातों से उसको मारा ।
पर गदहे को गुस्सा आया, उछल कर मुझे गिराया ।।
गिरा जमीं पर ,लगी चोट, पर हार न मैंने मानी ।
गदहा है ससुराली धन, मैं भूला, हुई नादानी ।।
बड़े प्यार से गले लगा, मैने उसको पुचकारा ।
ढेचू -ढ़ेंचू गा कर जैसे, मुझको हो दुत्कारा।।
बोला, देखो बुरा न मानो , होली का है ये त्योहार ।
महामूर्ख केवल तुम्हीं हो ,मैं ज्ञानी, सुन बात हमार।।
रहा खुशी का नहीं ठिकाना,इसने ही मुझे नवाजा।
महामूर्ख का तोहफा पा ,अपना परचम लहराया ।।