मैं एक छोटा तिनका-सा

सागर की उत्ताल लहर पर, मै एक छोटा तिनका-सा हूँ.

कभी उतर पाऊँ गहरे जल, ऊपर कभी उतराता हूँ..

नहीं बिसात है कोई मेरा, इस अथाह भवसागर में.

मैं उससे भी सूक्ष्म हूँ दिखता, जैसे गागर, सागर में..

गहरे पानी जाना चाहूँ, ज़ोर नहीं कम देता हूँ.

फिर भी उस गहराई में, नहीं दूर जा पाता हूँ..

उत्प्लावन जब मुझे उठाता, मै ऊपर आ जाता हूँ.

यतन अनवरत करते-करते, छिटक दूर तक जाता हूँ..

अपने धुन में सदा, निरन्तर रमा हुआ मैं रहता हूँ.

हौसला कम नहीं होता मेरा, ज़ोर लगाता जाता हूँ..

यही हौसला लिये हृदय में, सागर पार लगाउँगा.

थाह लगाने में अपना मैं, कोई कसर ना लाऊँगा..

भवसागर के अनमोल रतन, है क्या, ये पता लगाऊँगा.

ढ़ूँढ़ निकालूँगा उसको, जन-जन तक पहुँचाऊँगा..

जितनी भी हो गहराई, मैं तल तक पहुँच ही जाऊँगा.

छिपे गर्भ में क्या-क्या है, सब स्वयं देख कर आऊँगा..

भवसागर की थाह लगाना, है सच में आसान नहीं.

पर क्या-क्या कर सकता मनुष्य, यह भी कहना आसान नहीं..

जग निर्माता चाहे जो हो, मानव को श्रेष्ठ बनाया है.

सब जीवों से अधिक ज्ञान दे, जम कर इसे सजाया है..

उस निर्माता की इच्छा का, मान हमें रखना होगा.

जिस मकसद से हमें बनाया, पूर्ण उसे करना होगा..

मैं तो केवल हूँ निमित्त, मैं प्राण ‘उसी’ से पाता हूँ.

जो भी, जैसा भी ‘वो’ चाहे, ‘उसका’ हुक्म बजाता हूँ..

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