ऐ, आषाढ़ के पहले बादल, तूने कैसा धूम मचाया.
रिमझिम -रिमझिम बादल बरसे, मन में प्रेम का अगन लगाया..
बे हाल थी धरती तप्त तवा सी, तूने शीतल उसे बनाया.
सूख रहे थे वन-उपवन सब, नव जीवन उनमें भर लाया..
मॉं धरती थी ब्याकुल, प्यासी, तूने उनका प्यास बुझाया.
तृप्त हुई जल तेरा पी कर, दिल उनका हर्षाया..
हुये अंकुरित बीज गिरे जो, बन पौधा हरियाया.
सूखे डंठल से दिखते पौधे, किसलय से भर आया..
लगी संवरने धरती फिर से, ओढ़ हरी चादर अपने तन.
बेहाल जो थे, खुशहाल हुये, आह्लाद से भरे उनके मन..
ताप पवन के मंद पड़े, कम हो गयी उनकी तीव्र जलन.
अब बन सुहावना और सुखद, बन शीतल, जीता सब के मन..
छटा देखिये कैसे नभ में, छाया बादल घोर-घना.
गर्जन-तर्जन, कड़क-धड़क से, बाहर जाना कर रहा मना..
ऐ आषाढ़, तुझे धन्यवाद, शुक्रिया है, जल बरसाने का.
सूखी-प्यासी पड़ी धरा पर, नव यौवन छलकाने का..
ऐ आषाढ़, तुम्हे धन्यवाद, गरमी से त्राण दिलाया.
प्यासी धरती और जीव-जन्तु का, तुमने प्यास बुझाया..
मैं जान चुका तेरी कीमत, वैशाख-जेठ दुपहरिया में.
पहचान चुका महिमा तेरी, कुछ बीते चन्द महीनों में..
तू जीवन का दायक, राजक, यह जीवन तुझ से चलता है.
हो जाता जीवन अस्त-व्यस्त, त्राहिमाम मच जाता है..
वारिद तेरा जल नही दिया तो, कृषक हाथ मलता है.
सूखा-अकाल पड़ने का डर, साफ-साफ दिखता है..
बडा़ भरोसा रहता तुम पर, जल, जीवन देने वाले.
तुझ पर ही उम्मीद है रहती, भर दोगे गड्ढे-नाले..
तुझसे ही प्यासी माटी ने, गीली होना सीखा है.
सूख-सूख मरते पौधे ने, फिर से जीना सीखा है..
रिमझिम गिरती बूंदों से, मन का हर अवसाद मिटाया.
ऐ, आषाढ़ के पहले बादल, तूने कैसा धूम मचाया.
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