बचपन याद आ जाता है

एकाकी में बैठ कभी मन, शांत भाव में जाता है.
न जाने कैसे चुपके से, बचपन याद आ जाता है..

बारी-बारी से मस्तक में, दृश्य सभी आते हैं.
सभी पुरानी प्यारी बातें, मन में दौड़ लगाते हैं..
ख्याल पुराने, बहुत पुराने, मन में आता जाता है.
पज्ञी बन, मन आसमान में, ऊँची उडा़न लगाता है..
वास्तविकता भूल स्वयं मैं, वहाँ पहुच जाता हूँ.
अपनी प्यारी मित्र-मंडली, में खुद को पा जाता हूँ..
अपने प्यारे सखा संग मैं, कितने खेल रचाता हूँ.
कभी कबड्डी, कभी तिलंगी, लट्टू कभी नचाता हूँ..
गोली या फिर गिल्ली-डंडा, साइकल कभी चलाता हूँ.
बचपन की मीठी यादों में, खुद बच्चा बन जाता हूँ..
तब याद नहीं रहता किंचित, कब समय ये सारे बीत गये.
अब बच्चे नहीं रहे हम सब, वे बातें सभी अतीत हुये..
मै खेल नहीं हूँ खेल रहा, बस दिवा स्वप्न मैं देख रहा.
वे मित्र हमारे रहे नहीं, जो संग हमारे खेल रहा..
वो गया जमाना दूर बहुत, जब यारों की वो टोली थी.
वो वक़्त लौट क्या पाएगा, हर दिन जब दिवाली-होली थी..
बचपन की भी और कहानी, याद कभी आती है.
अपनी ही करतूतों पर खुद, आज हंसी आती है..
निर्दोष हृदय से सब होता, छल तनिक नहीं रहता उस में.
मन स्वच्छ और निर्मल होता, कुछ लोभ नहीं रहता उसमें..
कभी चलाता लौह-चक्र, मीलों का दौड़ लगाता हूँ.
पथ ऊबड़-खाबड़, फर्क नही, कभी खुद को थका न पाता हूँ..
स्मृति पटल पर दर्ज़ आज भी, रखी पड़ीं हैं सारी बातें.
मन थक जाता बहुत कभी, मसाज कराती हैं ये यादें..
बचपन की उन बातों में, मन कहाँ-कहाँ तक जाता है.
कभी-कभी तो चॉंद खिलौना, पाने का जिद आता है..
परियों का तो देश न जानें, कितनी बार  पहुँचता हूँ.
नीरवता में, सुंदरता का, अद्भुत दर्शन पाता हूँ..
यादों के इस महासिन्धु में, गोते खूब लगाता हूँ.
तंद्रा जब यादों की हटती, तन्हा खुद को पाता हूँ..
बचपन की यादों से बाहर, वापस मैं जब आता हूँ.
पूर्ण ताजगी और प्रफुल्लित, मैं खुद को पाता हूँ..

लोग ठीक ही कहते हैं, ये दुनिया बस एक मेला है.
सब आते, मिलते-जुलते, बस चन्द दिनों का खेला है..
चार दिनों में गये तीन, जो बचे एक, का ध्यान करो.
सत्कर्मों में इसे लगाओ, असकों का कल्याण करो..