मै तो मुसाफिर हूँ, अकेला, कोई ठौर नहीं.
पथिक मैं उन राहों का, जिनका कोई छोड़ नहीं..
बढ़ता ही जाता हूँ, निरन्तर, अपनी राहों पर.
ले कर विश्रान्ति, कहीं पेड़ों के छाहों तर..
ले लूँ कुछ झपकियॉं भी, पल, या दो पल को.
विराम दे देता हूँ, अपने तन-बल को..
लेटूँ कहीं छाह में, मुलायम, हरे घास पर.
मिटाऊँ थकन मन का, पहुँचने की आस पर..
ले लेती नींद मुझे, अपनी आगोश में.
मैं तो एक राही, दीवाना, कहाँ होश में..
दीवाना तो दीवाना है, उसका कहाँ ठिकाना.
पता-ठिकाना जिसका हो, वो कैसा दिवाना..
मत रोक मुझे, आ मत, मेरी राहों में रोड़े बन कर.
पथिक को जाने दो, राह दो, मार्ग-प्रदर्शक बन कर..
मत रोक मुझे, चलने दो, वर्ना पथिक कहाँ रह पाऊँगा.
रूक जो गया, तो पथिक नहीं, जड़, पत्थर-सा, रह जाऊँगा..
“मैं तो मुसाफिर हूँ&rdquo पर एक विचार;