मुक्तक

1. कागज़ पर, पैग़ाम लिखा होता है.
दिल में पर, अरमान लिखा होता है.
कागज पर लिखा, तो सब पढे.
पर जो दिल का पढ़ ले, वो बस कोई एक होता है..

2. चमन वीराँ नही होता, गुलों की हानि से.
कलियॉं मुस्कुराती है, कल की रवानी से.
पड़ूँ मैं हार बन, देवों के गले.
या दुल्हन के करों में जाऊँ मैं, वरमाल बन के..

ऐ माँ सरस्वती!

ऐ माँ सरस्वती ,मै करूँ वन्दना
अपने दिल मे, मुझे भी जगह दीजिये.
अज्ञानता का तम, है भरा विश्व में
ज्ञान की रोशनी, उसमें भर दीजिये.
न भटकता रहूँ  मैं, यूं अन्धेरे में,
ज्ञान मुझको, उजाले का दे दीजिये.
तार वीणा का, झंकार करता तेरा
मेरे मन को भी, झंकृत कर दीजिये. ऐ माँ …
तू है माता मेरी,मै तनय हूँ तेरा,
मुझमें जो भी कमी हो,पूरी कीजिये.
क्या है चाहत मेरी, आप को सब पता,
कामना वह मेरी तो,पूरी कीजिये.
लुटाया करूँ मै, खुले हाथ से,
ज्ञान इतना मुझे, तो दिया कीजिये. ऐ माँ…
लुटाये भी घटता, नहीं ज्ञान है,
और बढ़ता है, मुझ पर कृपा कीजिये.
तेरी महिमा तो जग मे निराली ही है,
हे कृपालु, हम सब पर कृपा कीजिये.
ज्ञान सब को मिले, ज्ञानियों का हो जग,
बस इतना रहम, हम पे कर दीजिये. ऐ माँ…
ज्ञान का थाह तो, जग मे कोई नहीं
अज्ञ को विज्ञ, आ कर बना दीजिये.
ज्ञान सब मे रहे,माँ न भूले हमें,
ज्ञान की ज्योत, मन में जला दीजिये.
तेरी सेवा से मन, हो न विचलित कभी,
ऐसी गंगा कृपा की बहा दीजिये. ऐ माँ…

भारत और संत

साधु-संतों की, भारत में, होती रही है पूजा.

अहम भूमिका होती इनकी, कोई नहीं कर सकता दूजा..

ऋषि अगस्त्य, मुनि बाल्मिकी, कपिल मुनि सा ज्ञानी.

विश्वामित्र, नारद, दुर्वाशा, मुनि दधीचि सा दानी..

जाने कितने ऋषि-मुनियों का, देश रहा यह भारत.

दिया इन्होने सदा देश को, बिना लिये कुछ लागत..

रहना-सहना वन मे होता, भिज्ञाटन पर जीना.

गुरूकुल होता पर्ण-कुटीर का, पढ़ना और पढाना..

आदर और सम्मान न पूछो, कितना मिलता था उनको.

ईश्वर का दूजा रूप सदा, समझा जाता था उनको..

ब्रह्मचर्य के पालक थे, वे सदाचार के स्वामी.

पर, तार-तार कर रखा मान अब, कलियुग के कुछ स्वामी..

बदनाम किया गुरू की महिमा, पर फर्क न पड़ता इनको.

सुनते, गर्दन झुकता सबका, पर असर न कोई इनको..

बेशर्मी की हद कर दी, ऋषि-मुनियों को बदनाम किया.

जो चमक रहा था सूरज सा, मद्धिम करने का काम किया..

देख आज के स्वामी जी को, क्या-क्या रंग दिखाते वे.

कोई कुकर्म न है ऐसा, हैं जिसको नही कराते वे..

दुष्कर्मों की चर्चा उनकी, सुनने मे आती जब-जब.

जनमानस की श्रद्धा-भावना, आहत हो उठती तब-तब..

जो सदा देखते थे रहते, ईश्वर का इन में रूप.

कैसे सहन करें देखें जब, अंतरंग का रूप कुरूप..

श्रद्धा पर कठिन प्रहार किया, आचरण बिगाडी़ अपनी.

धोखा दे कर फुसलाना, ठग लेना, उनकी करनी..

इतिहास नही कहता, होता हो कभी घिनौना काम.

साधु बन ब्यभिचार करे, है अति अधम यह काम..

जब कोई साधु-संत स्वयं, यूँ अनाचार अपनाएगा.

धर्म संस्था से, इंसाँ का, मोह भंग हो जाएगा..

ऐसा अधम, पतित, पापी का, जग में रहे न नाम.

सजा इन्हें नायाब मिले, बन सके नज़ीर जो आम..

फिर कोई अधमी, छद्म संत बन, जनमानस से न खेले.

साधु-संत के ज्ञान-पुंज से, जनमन फिर रौशन हो ले..