तुम शरद काल या शीत काल,गिरिधर या मुरलीधर जैसे.
ऐ शरद तेरा पर्याय शीत,दोनो में जो बोलू वैसे..
सभी तुम्हारा स्वागत करते,जब सौम्य रूप मे आते तुम .
पर हो जाता दुखदायी जब,रौद्ररूप ले लेते तुम..
यह रूप तुम्हारा बड़ा भयंकर,ताल तलैया जम जाते.
जिनके तन पूरे वस्त्र न होते,कहीं ओट खोज कर छुप जाते..
हाड़ कंपानेवाली ठंढ़क,सब को ही खूब सताती है.
छोटी चिड़िया चुनगुन्नी,अति ठंढ़क से मर जाती है..
पर्वत की ऊची चोटी पूरी,ढक जाती हिमपातों से.
उपर के पेडों-पौधे भी,दब जाते हिम आघातों से..
भारत है ऐसा देश जहॉ,हर जगह न ठंढ़ सता पाती.
उत्पात ठंढ़ कुछ भागों मे,ज्यादा नहीं मचा पाती..
हम भारत के लोग, सभी मौसम को झेला करते हैं.
सारे मौसम को सहने की,ज्ञमता भी खुद में रखते है..
सर्दी हो या हो गर्मी,हद से ज्यादा जब बढ़ जाती.
अनुकूल बनाने की ज्ञमता से,भी आगे जब बढ़ जाती ..
घातक बन जाती जीवन का,जीवन ळेवा भी बन जाती.
कभी कभी कुछ ही लहमों में,प्राण पखेरू हर लेती..
कहते तो मरना-जीना,उपर वाले के हाथ सभी.
फिर भी वह इल्जाम स्वंयं,अपने सर क्या लिया कभी..
स्वयं सदा वह पीछे रह कर,अपना वाण चलाता है.
आघात स्वयं छिप कर करता,बदनाम अन्य को करता है..
सौभाग्य हमारी भारत मॉं का,मौसम सभी यहॉं आते है.
आनन्द सभी मौसम का बैठे,एक जगह पर हम पाते है..
चाहे कोई हो जगत नियंता,धन्यवाद करता हूँ उनका.
आभारी हैं हम सब उनके,शुक्र अदा करता हूँ उनका..