दुनिया को गढ़ने वाले, आ,
देख ले अपनी गढ़ी, ये दुनिया।
जो सोचा, थे बना रहे जब,
क्या वैसी ही, बनी ये दुनिया॥
तुम हो कोई भी, चाहे,
है फर्क पड़े क्या, मानव को।
सृजनकार, हो कोई भी,
है देखा, कोई कहाँ तुमको॥
जिसने भी था जगत बनाया,
मनुज को मानव मात्र बनाया।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
भेद बाद में आया॥
ये प्रपंच जितने सारे,
मानव ने स्वयं बनाया है।
बाँट मनुज को खंडों में,
अपना निज स्वार्थ निभाया है॥
किसी को छोटा, बड़ा किसी को,
धर्म-जाति का भेद बनाया।
मिल न पाये आपस में जन-जन,
तिकड़म बहुत भिड़ाया॥
शिक्षा पाने का अधिकारी,
कुछ जाति को बना दिया।
रहे शेष वंचित सारे,
ऐसी नियमावली बना दिया॥
जैसे चाहा, दमन किया,
वंचित के तन, मन, धन का।
राज किया, शासक बनकर,
खुद ‘तारक’ कह, निर्धन जन का॥
दमन किया, पर बड़े प्यार से,
चक्र था ऐसा चला दिया।
बाँट दिया यूँ रीत-नीत से,
भाई-भाई में लड़ा दिया॥
जाने कितने युगों-युगों से,
यही कर्म चलता आया।
संतान मूढ़ निकले उनकी, पर,
पूज्य सदा बनता आया॥
धीरे-धीरे युग बदला,
और लगे बदलने सब आचार।
वंचित ने जब शिक्षा पायी,
बदल गया उसका व्यवहार॥
युगों-युगों का भेद-भाव,
तब जाकर समझ में आया।
दमन, दासता और गुलामी,
उन्हें बहुत तड़पाया॥
वंचित रहे जनों के मन में,
क्रोध बहुत फिर आया।
इंतकाम की बाढ़ आ गयी,
फूट पड़ी मन की ज्वाला॥
आज जिसे नक्सल कहते हैं,
नहीं देन क्या है उसका।
शोषक, कर शोषण, चला गया,
अब भोग रहा बालक उसका॥
पर बदल रहा धीरे-धीरे,
हैं गलत रीतियाँ सुधर रही।
कुछ बदला, कुछ बदलेगा,
बाकी न रहे, कोई कुरीति अभी॥
समय आन अब पड़ा,
सभी को साथ-साथ मिल बढ़ना है।
भेद-भाव न रहे कोई,
ऐसा समाज एक गढ़ना है॥