कोई क्या जाने

इस भौतिकता की दुनियॉं मे, कल क्या होगा, कोई क्या जाने.
जहॉं नैतिकता ही लुुप्त हुई,उस जग का क्या हो, क्या जाने..

ऐ उपर वाले,तेरी रची, प्रकृति की दौलत, जग जाने.
जो दौलत है मानव निर्मित, गुण-अवगुण, मानव खुद जाने.॰

सब बने दिवाने हैं इनके,प्राय:सब ही,सब वो जाने.
यहॉं मित्र न कोई,पिता न कोई,न कोई भाई-बहन, जानें..

सर कलम किसी का कर देगें,मकसद दौलत पाना, जानें.
वो करेंगे क्या,दौलत इतनी,पूछो उनसे, वो ही जाने..

बस एक हवस केवल उनकी,कुछ इतर न इसके है, जानें.
बस हवस में सब कुछ हैं करते, कोई कर्म-कुकर्म न वे जाने..

है मात्र हवस मकसद उनका,हासिल ही करना, वे जानें.
इस भौतिकता की दुनियॉं मे, मानव मष्तिष्क विकृत, जानें..

यहॉ मौत भी बिकता, दौलत से,जरा ध्यान इधर दो, जानें.
ऐ उपर वाले, तुम्ही बता, अब क्या करना, तू ही जाने..

जहाँ ईष्ट बना ही हो दौलत,उस जहॉं का क्या हो, क्या जानें.
इस भौतिकता की दुनियॉ में,कल क्या होगा, कोई क्या जाने..

तमन्ना आसमॉं तक पहुंचते देखा है

अपनी जिन्दगी को ,उठते-लुढ़कते देखा है.
तमन्ना आसमॉं तक,पहुंचते देखा है..
कभी चाहत थी मेरी, कुछ चीज पा लेने की.
हसरत बडी़ थी,उड़ कर वहॉं तक जाने की..
आजमाइश न की हो,बात तो ऐसी नहीं.
कोशिश बहुत की, बात यह बिलकुल सही..
नहीं मै लॉंघ पाया,फासला ये दूरी को
बड़ा ही था बिवश तब,समझ मेरी मजबूरी को..
नहीं मै पार पाया,आजमा कर देखा है.
तमन्ना आसमॉं तक, पहुचते देखा है..
लगाई जोर हमने फिर, तनिक हिम्मत न हारी॰
लगाता ही गया,रखा अनवरत जोश जारी..
कभी गिरता फिसल कर,बहुत नीचे और ज्यादा.
उठ कर फिर संभलता,लगा कुछ जोर ज्यादा..
नहीं भय था तनिक,फिसल गिर जाने का.
धुन एक ही था तब ,सिर्फ चढ़ जाने का..
गिरते-उठते तो हमने,बार-बार ही देखा है.
तमन्ना आसमॉं तक, पहुचते देखा है..
सब जानते केवल मुसाफिर,पर कहॉ का?
कही कोई ठौर भी है, या करना कहॉ, क्या??
सभी अटकल लगाते,बात कुछ यूँ ही बताते.
जो भी बताते,अलग कुछ ही बताते.
माना रास्ता सारे अलग,दिशा अलग भी.
कुछ छोड़ कर,सब मार्ग तो है ही अलग ही..
गुमराह रहते खुद,करें गुमराह सब को.
रहते खुद फँसे और ,फॉसते भी अन्य सब को..
यही क्रिया युग-युगों से ,सुना और देखा है.
तमन्ना आसमॉं तक, पहुंचते देखा है..

शरद काल

तुम शरद काल या शीत काल,गिरिधर या मुरलीधर जैसे.
ऐ शरद तेरा पर्याय शीत,दोनो में जो बोलू वैसे..
सभी तुम्हारा स्वागत करते,जब सौम्य रूप मे आते तुम .
पर हो जाता दुखदायी जब,रौद्ररूप ले लेते तुम..
यह रूप तुम्हारा बड़ा भयंकर,ताल तलैया जम जाते.
जिनके तन पूरे वस्त्र न होते,कहीं ओट खोज कर छुप जाते..
हाड़ कंपानेवाली ठंढ़क,सब को ही खूब सताती है.
छोटी चिड़िया चुनगुन्नी,अति ठंढ़क से मर जाती है..
पर्वत की ऊची चोटी पूरी,ढक जाती हिमपातों से.
उपर के पेडों-पौधे भी,दब जाते हिम आघातों से..
भारत है ऐसा देश जहॉ,हर जगह न ठंढ़ सता पाती.
उत्पात ठंढ़ कुछ भागों मे,ज्यादा नहीं मचा पाती..
हम भारत के लोग, सभी मौसम को झेला करते हैं.
सारे मौसम को सहने की,ज्ञमता भी खुद में रखते है..
सर्दी हो या हो गर्मी,हद से ज्यादा जब बढ़ जाती.
अनुकूल बनाने की ज्ञमता से,भी आगे जब बढ़ जाती ..
घातक बन जाती जीवन का,जीवन ळेवा भी बन जाती.
कभी कभी कुछ ही लहमों में,प्राण पखेरू हर लेती..
कहते तो मरना-जीना,उपर वाले  के हाथ सभी.
फिर भी वह इल्जाम स्वंयं,अपने सर क्या लिया कभी..
स्वयं सदा वह पीछे रह कर,अपना वाण चलाता है.
आघात स्वयं छिप कर करता,बदनाम अन्य को करता है..
सौभाग्य हमारी भारत मॉं का,मौसम सभी यहॉं आते है.
आनन्द सभी मौसम का बैठे,एक जगह पर हम पाते है..
चाहे कोई हो जगत नियंता,धन्यवाद करता हूँ उनका.
आभारी हैं हम सब उनके,शुक्र अदा करता हूँ उनका..

मुक्तक

सुरा को माप लेते, पेग के पैमाने से.

निकलते मस्त होकर, झूमते मयखाने से.

मस्ती कम न मिलती, सुन किसी तराने से.

किसी के प्यार में, कोई गीत गुनगुनाने से..

 

कुछ कह नहीं पाता

बस देखता हूँ केवल, कुछ कर नहीं पाता।

कुछ चाहता हूँ कहना, पर कह नहीं पाता॥

सुनता हूँ नित्य, नई-नई बातें।

जुर्म-अत्याचार की वारदातें॥

हत्या, डकैती और एटीएम पर घातें।

कहीं चेन स्नैचिंग, तो कहीं अन्य करामातें॥

चोर-घूसख़ोर, नहीं शरमाते।

करते जम-जम कर, नई-नई बातें॥

धौंस जमाते, क्या-क्या कह जाते।

हरदम सबों को, चूना लगाते॥

मंत्री या संतरी, इनके पौकेट में रहते।

इनके कहे बिन, ये कुछ भी न करते॥

सिर्फ सुनता ही रहता, कुछ कर नहीं पाता।

कुछ चाहता हूँ कहना, पर कह नहीं पाता॥

सरकारी दफ़तर की, बात ही न्यारी।

रहती साहब से पिउन, तक हिस्सेदारी॥

टेबल मनी ऊपर, होती है भारी।

इसीलिए पोस्टिंग में, होती मारामारी॥

सब लूटते है मिल-जुल, जुर्मी हैं भारी।

मरती तो केवल है, जनता बेचारी॥

किसको कहें दर्द, अपनी लाचारी।

सब हैं मिले, कौन सुनता तुम्हारी॥

खुला राह आगे, बचा क्या है कोई।

सभी बंद हो गए, या है शेष कोई॥

सिर्फ सोचता ही रहता, निपट नहीं पाता।

कुछ चाहता हूँ करना, कर नहीं पाता॥

निकलें जो सड़कों पर, वहाँ भीड़ भारी।

मची है वहाँ भी, बड़ी धक्कामारी॥

पैदल बगल, बीच में हर सवारी।

फुटपाथ पर भी, बिकती तरकारी॥

सभी दौड़ते, कोई धीरे न चलता।

यही जिंदगी है, शहर की हमारी॥

लगाती सड़क पर, फर्राटे गाड़ी।

धुआँ-धूल जमकर, उड़ाती खटारी॥

शोर ऐसी मचाती, कर्कशा जैसे नारी।

सर पे उठाती, मुहल्ला ही सारी॥

मर्ज बढ़ता ही जाता है, घट नहीं पाता।

सुधारना तो चाहूँ, सुधर नहीं पाता॥

भ्रष्टाचार का आज, है बोलबाला।

अछूता बहुत कम, बचा दुनियावाला॥

लूटने में भिड़े, दूसरों का निवाला॥

निकले किसी का भी, चाहे दिवाला॥

रोकता भी न कोई, न कुछ कहने वाला।

मिलेंगे शाबासी, उन्हें देने वाला॥

इनकी गिनती बड़ी, और बढ्ने ही वाला।

क्या कलियुग इसे ही, कहते दुनियावाला॥

बस सोचता हूँ सिर्फ, समझ नहीं पाता।

चाहता हूँ कहना, पर कह नहीं पाता॥

जरा सोचिए, आज मानव कहाँ है।

पुरखे बंदर से ऊपर, बढ़ा ही कहाँ है॥

विज्ञान में बढ़ गए, पर मानवता कहाँ है।

दूसरों का जो सोचे, माद्दा कहाँ है॥

परहित में जिये, ऐसा जीवन कहाँ है।

दर्द दूसरे का समझे, वो दिल ही कहाँ है॥

जो संस्कृति थी अपनी, अब वो कहाँ है।

जो देता था खुश हो, वो दाता कहाँ है॥

ज्ञान देते थे जग को, वो गौतम कहाँ है।

चाणक्य कहाँ, जैन महावीर कहाँ है॥

बस ढूँढता हूँ हरदम, पर मिल नहीं पाता।

कुछ चाहता हूँ करना, कर नहीं पाता॥

मैं तो हूँ, जल की धारा

मैं तो हूँ, जल की धारा,

निरंतर बहती रहती हूँ।

झेल सभी बाधाओं को,

आगे बढ़ती रहती हूँ॥

पर्वत की ऊंची चोटी से,

जल, बर्फ पिघल बनता है।

राह बनाता खुद जाता,

विश्वास स्वयं पर करता है॥

बढ़ती जाती अविरल पथ पर,

घुंस कर पर्वत के खोहों से।

स्वयं खोज लेती पथ अपना,

भिड़कर हर अवरोधों से॥

चट्टानों से, भिड़ जाती,

निर्भय हो, राह बना लेती।

हर-हर शोर मचाती सी,

अवनि तल पर छा जाती॥

मग में आए, पाषाण अगर,

अवरोधक जो बन कर भी।

कंकर-बालू उसे बनाती,

रगड़-रगड़, घिस कर भी॥

बड़े-बड़े वट वृक्षों की भी,

नामोंनिशां मिटा देती हूँ।

तोड़-ताड़ डालों को इसके,

धड़ को कहीं बहा देती हूँ॥

जीवन देती हूँ मैं जग को,

मीठा जल देती पीने को।

फसल उगाता मेरा जल ही,

देता जीवन जीने को॥

करती मैं उपकार सबों पर,

बदले में क्या देते लोग।

दूषित करते जल मेरा,

अमृत को गरल बनाते लोग॥

मैं चुपचाप सहन करती,

नहीं कभी कुछ कहती हूँ।

अपने संतानों की कुमति पर,

घुंटती-सहती रहती हूँ॥

भोगेगा वो स्वयं नतीजा,

करनी का फल पाएगा।

नियम सदा चलता आया,

जो बोएगा, वो काटेगा॥

 

बिहार हमारा

हम बिहारी, बिहार है हमारा।

जान से भी है ज्यादा, ये प्यारा॥

गौर से देखिये, इसके इतिहास को।

हम क्या थे, थे कैसे, इस बात को॥

जगत को सिखाते, बाँटते ज्ञान को।

पैदा किया, बुद्ध भगवान को॥

जैन, महावीर, गुरु गोविंद संतान हैं।

आर्यभट्ट, अशोक क्या अंजान हैं॥

स्वतन्त्रता के सेनानी, भी पैदा किया।

राष्ट्रपति भी प्रथम, हमने ही दिया॥

गणतन्त्र का सबक, जग को हमने दिया।

देश अनेकों ने इसको, अपना लिया॥

नीति चाणक्य की, जग में विख्यात है।

मौर्य चन्द्रगुप्त भी कम, क्या ख्यात है॥

हममें क्या कुछ न था, सब कुछ ही तो था।

समय का असर, पर पड़ना ही था॥

हम पिछड़ने लगे, और पिछड़ते ही गए।

पिछड़ते-पिछड़ते, पिछड़ सबसे गए॥

लोग खिल्ली उड़ाने, मेरा लग गए।

हम थे हीरो कभी, जीरो बन गए॥

राज्यों में बिहार, सबसे पीछे हुआ।

सारी कीर्ति व रौनक भी धूमिल हुआ॥

हाल पूरी तरह जब बिगड़ जाता है।

सच है, कोई एक त्राता उभर आता है॥

है एक त्राता मिला, ऐसा बिहार को।

यत्न-मेहनत किए, मेरे उद्धार को॥

ऐसा लगता पुनः, दिन बहुरने लगा।

जो पिछड़ा था, आगे फिर बढ्ने लगा॥

होगा हासिल, जो खोया था सम्मान, फिर।

राष्ट्र गौरव बने, मेरा बिहार, फिर॥

ऐसा समाज एक गढ़ना है

दुनिया को गढ़ने वाले, आ,

देख ले अपनी गढ़ी, ये दुनिया।

जो सोचा, थे बना रहे जब,

क्या वैसी ही, बनी ये दुनिया॥

तुम हो कोई भी, चाहे,

है फर्क पड़े क्या, मानव को।

सृजनकार, हो कोई भी,

है देखा, कोई कहाँ तुमको॥

जिसने भी था जगत बनाया,

मनुज को मानव मात्र बनाया।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,

भेद बाद में आया॥

ये प्रपंच जितने सारे,

मानव ने स्वयं बनाया है।

बाँट मनुज को खंडों में,

अपना निज स्वार्थ निभाया है॥

किसी को छोटा, बड़ा किसी को,

धर्म-जाति का भेद बनाया।

मिल न पाये आपस में जन-जन,

तिकड़म बहुत भिड़ाया॥

शिक्षा पाने का अधिकारी,

कुछ जाति को बना दिया।

रहे शेष वंचित सारे,

ऐसी नियमावली बना दिया॥

जैसे चाहा, दमन किया,

वंचित के तन, मन, धन का।

राज किया, शासक बनकर,

खुद ‘तारक’ कह, निर्धन जन का॥

दमन किया, पर बड़े प्यार से,

चक्र था ऐसा चला दिया।

बाँट दिया यूँ रीत-नीत से,

भाई-भाई में लड़ा दिया॥

जाने कितने युगों-युगों से,

यही कर्म चलता आया।

संतान मूढ़ निकले उनकी, पर,

पूज्य सदा बनता आया॥

धीरे-धीरे युग बदला,

और लगे बदलने सब आचार।

वंचित ने जब शिक्षा पायी,

बदल गया उसका व्यवहार॥

युगों-युगों का भेद-भाव,

तब जाकर समझ में आया।

दमन, दासता और गुलामी,

उन्हें बहुत तड़पाया॥

वंचित रहे जनों के मन में,

क्रोध बहुत फिर आया।

इंतकाम की बाढ़ आ गयी,

फूट पड़ी मन की ज्वाला॥

आज जिसे नक्सल कहते हैं,

नहीं देन क्या है उसका।

शोषक, कर शोषण, चला गया,

अब भोग रहा बालक उसका॥

पर बदल रहा धीरे-धीरे,

हैं गलत रीतियाँ सुधर रही।

कुछ बदला, कुछ बदलेगा,

बाकी न रहे, कोई कुरीति अभी॥

समय आन अब पड़ा,

सभी को साथ-साथ मिल बढ़ना है।

भेद-भाव न रहे कोई,

ऐसा समाज एक गढ़ना है॥