जहांं भारत बसता है

सुदूर गाँव को चलो, जहां भारत बसता है।

देख, स्वयं जा देख, जहां भारत बसता है॥

झलक सादगी, ललक प्यार की, निष्कपट हृदय का स्वामी।

कृष काया, धोती बस तन पर, मन सोना, सत्पथ गामी॥

चाह नहीं ज्यादा पाने की, जितना मिला, उसी में खुश हैं।

सनक नहीं, न कोई लालच, चित्त शांत व सौम्य, सरस है॥

भौतिकता में डूब चुके जो, देख उन्हें मुख मोड़े।

समझ दया का पात्र उन्हें, अपने से नाता तोड़े॥

नहीं समझते हैं सच में, है कितना ज्ञान भरा इनमें।

दया पात्र समझा जिनको, कितने ऊँचे संस्कार हैं उनमें॥

स्कूलों-कॉलेजों से, वे शिक्षा नहीं हैं पाये।

अनुभव व जनश्रुतियों से, ज्ञान हैं हासिल कर पाये॥

ज्ञान उन्होने जो पाया, वे जग में मुफ्त लुटाते हैं।

दिल खोल सबों से मिलते हैं, हर जन को गले लगाते हैं॥

हर कष्ट झेल कर स्वयं, शहर का पेट वही भरते हैं।

तुम मद में डूबे रहते, वे जीवन देते रहते हैं॥

सोचो, तुम या तेरे पुरखे, गावों में थे जनम लिये।

जैसे भी हो, ग्रामीणों ने, तुमको थे तालीम दिये॥

तुम तो पढ़-लिख, छोड़ चले गए, किसी नगर की ओर।

मग्न हुये खुद में ऐसा, सुध लिया नहीं इस ओर॥

जाना था गर, चले गए, पर ध्यान इधर भी कुछ देते।

योग्य बनाने का थोड़ा, एहसान चुका ही देते॥

फिर आज देश का गाँव-गाँव, विकसित बन गया हुआ होता।

नाम जगत में भारत का, ऊपर बहुत हुआ होता॥

पर नहीं लिया दायित्व, स्वार्थ में, तुम तो जाकर डूब गए।

गावों से बनकर आए थे, तुम बिलकुल ही भूल गए॥

भूल गए, तो भूल गए, कोई शिकवा बहुत नहीं है।

समृद्ध नहीं हैं तेरे जैसा, पर कोई गिला नहीं है॥

संस्कृति जो भारत का है, गावों में ही बसता है।

रंग नहीं कोई उनके ऊपर, पाश्चात्य का चढ़ता है॥

इन गावों के वासिंदे सब, हैं दादा, कोई भाई-भतीजा।

बड़े प्यार से रहते सब, कोई गैर नहीं, न कोई दूजा॥

दादी-चाची, बहन-बुआ का, प्यार यहाँ दिखता है।

विश्वास, स्नेह के इन धागों से, बंधा सब मिलता है॥

गाँव नहीं कह, इसे बड़ा परिवार, कहा जा सकता है।

अलग-अलग, पर साथ-साथ, जमात कहा जा सकता है॥

विपदा आन पड़े जब कोई, मदद सभी मिल करते हैं।

मतभेदों को भूल-भाल, सब आपस में मिल रहते हैं॥

प्रबुद्ध-आधुनिक शहरों के जन, संस्कृति भूल रहे हैं।

संस्कार वे मूल भूल, अपने में सिमट रहे हैं॥

इतिहास देख तुम भारत का, यह कहाँ–कहाँ बसता है।

देख, स्वयं जा देख, जहां भारत बसता है॥

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