टहलता – टहलता, कहाँ आ गया।
कैसी फूलों की बगिया में मैं आ गया॥
रंगीन फूलों की बगिया ये प्यारी।
रंगों के मेले हैं, खुशबू है न्यारी॥
करते गुंजन मधुप, गीत गाते भ्रमर।
नन्हें खग भी फुदकते है, चारों प्रहर॥
पंखुड़ी, फूल काले, विविध रंग में।
बन के दुल्हन, महावर लगा अंग में॥
मानों आयी मिलन को, वो उद्यान में।
अपने साजन मिलन को, बसा ध्यान में॥
जिधर देखिये, प्रेम-मनुहार है।
सारी बगिया में, जैसे भरा प्यार है॥
प्यार ही फूल का, रूप धारण किया।
प्यार बन के भ्रमर, मंत्रोच्चारण किया॥
तान कोयल भी, कुछ यूं लगाने लगा।
चुप सा बैठा पपीहा, भी गाने लगा॥
स्वर की लहरी में डूबा, यों उद्यान था।
मुग्ध थे सब, न अपना, उन्हें ध्यान था॥
दिल को एहसास होता, कहाँ आ गया।
ऐसी वादी-ए-कश्मीर में, मैं कब आ गया॥
मैं तो उड़ता सदा, कल्पना में रहा।
कल्पना की नज़र से, निरखता रहा॥
कभी उड़कर, मैं छूता, उस ऊंचाई को।
देख पाता कभी, मैं उस गहराई को॥
ये जग है एक बगिया, मैं छोटा सा तिनका।
तुच्छ इतना हूँ कि, कोई गिनती न जिसका॥
‘तेरी’ बगिया बड़ी है, सुहानी भी है।
फूल इसमें है अद्भुत, नूरानी भी है॥
हम सब ‘तेरी’ इस बगिया, के ही फूल हैं।
तुमने जैसा रचा, उसमें मशगूल हैं॥
‘तुम’ जो चाहो, मुझे भेजो, कहाँ, क्या बना।
हार ‘तेरे’ गले, या शव का माला बना॥
मैं तो करता हूँ खुद को, हवाले तेरे।
तेरी मर्ज़ी, जो चाहो, बना दो मुझे॥
दिल से स्वागत करूंगा, दोगे भी तुम सज़ा।
तेरी जो भी हो मर्ज़ी, मिलेगा मज़ा॥