मुक्तक-5

1. दुर्दिन में जो साथ न दे, वह हित कैसा,

गमों में जो हमदर्द न बने, वह मीत कैसा ।

दुर्दिन में ही पहचान होता, अपने-पराये का,

कौन पराये भी अपने हैं, कौन अपना पराया ॥

2. तकदीर भी तदबीर से बदल जाती है,

बिगड़ी हुयी हस्तरेखाएँ, कर्म से सुधर जाती हैं ।

क्यों फिक्र हो करते फिर, बस कर्म ऐसा कर,

खुदा फिर से लिखे, तेरी तकदीर, तुझसे पूछकर

3. जुगनू लाख मिल जाएँ, उजाला हो नहीं सकता,

तारे अनगिनत हो लें, अंधेरा मिट नहीं सकता ।

बस एक सूरज काफी है, रोशनी के लिए,

अंधेरा कितना भी घना हो, टिक नहीं सकता ॥