चलो साथ मिल चलते हैं, देखें दुनिया का मेला I
कौन लगाया इस मेले को, कौन सजाया है मेला II
जग की सारी चीज़ें मिलती, इस मेले के अंदर में I
शायद ही कोई चीज़ हो वैसी, मिले न जो इस मेले में II
जीव-सजीव, सब सचल-अचल, झोपड़पट्टी और राजमहल I
जंगल, झाड़ी, सागर की लहरें, झड़ने का झड़-झड कोलाहल II
खुर्दबीन से दिखने वाले, या व्हेल -हाथी से जीव बड़े I
छोटे-छोटे अंकुर से लेकर, ढेरों लंबे पेड़ बड़े II
यह दुनिया एक मेला है, या फिर बोलें चिड़ियाखाना I
सारी दुनिया क्षेत्र है इसका, मिलता सब को खाना-दाना II
जीव-जन्तु दरबे में रहते, जीव-जन्तु ही दर्शक भी I
देख दूसरे को डर जाते, एक साथ मिल रहते भी II
प्रेमभाव है रहता किसी से, रहता कोई दुश्मन भी I
रहता कोई खाद्य उसी में, कोई खाने वाला भी II
इतने सारे जीव-जन्तु हैं, इस दुनिया के मेला में I
किसका अभिनय कौन करेगा, जीवन के इस खेला में II
एक जीव आया मेले में, “मानव” उसका नाम I
सबसे अलग और मेधावी, लेता वह बुद्धि से काम II
साहस अदम्य, बुद्धि कुशाग्र, बाहुबल का कोई थाह नहीं I
मानव-धर्म पे मिटने वाले, जीवन की परवाह नहीं II
कुकर्म-सुकर्म और धर्म-अधर्म, सारे कर्मों के ज्ञाता I
इसी जीव “मानव” के अंदर, भेजा यहाँ विधाता II
धर्म से विचलित होना, पर जब शुरू किया मानव मस्तक I
धीरे-धीरे, लोभ-मोह में, फँसता चला गया मस्तक II
जिस मस्तक में लोभ-मोह हो, होता वो बेईमान I
दुष्कर्मों में लिप्त रहेगा, उसका सदा ईमान II
सारे जीवों में सामूहिक,सहयोग परस्पर जो हो जाए I
फिर तो ये जो “मेला” है, “समाज” सही कहलाए II