देख ज़माना बदल गया,
हैं बदल गए अब सारे खेल, देख यही कलियुग का खेल I
पुत्र पिता पर धोंस जमाए,
सुने न तो फटकार लगाए,
डपटे, झपटे, मुर्ख बताए,
चलता उल्टा खेल, देख यही कलियुग का खेल I
पुत्र पिता का पेंशन लाए,
जहाँ -तहाँ दस्तखत कराए,
सारा माल हड़प कर जाए,
हर दम चलता रहता खेल, देख यही कलियुग का खेल I
बापू यदि विरोध जताए,
दस्तखत को धता बताए,
अपना गर अधिकार जमाए,
देता बेटा घर में ‘सेल’, देख यही कलियुग का खेल I
बुड्ढ़ा, जीवन में किया ही क्या,
खाया-पिया और ऐश किया,
केवल पेंशन ही है लाता,
प्रोग्राम, कराता है हर फेल, देख यही कलियुग का खेल I
बुड्ढ़ा नौकरी में मर जाता,
उसका क्या काम बिगड़ जाता,
मुझे तो नौकरी मिल ही जाती,
जिया, बिगाड़ा खेल, देख यही कलियुग का खेल.
पाठशाला सरकार बनाई,
उसमे कैसा नियम लगाई,
शिक्षक का है एक न चलता,
नहीं कर सकता किसी को फेल, देख यही कलियुग का खेल I
फादर, मुल्ला और पुजारी,
उपदेशक, बन गए दरबारी,
भांट बने गुणगान सुनाते,
लगाते नेता जी को तेल, देख यही कलियुग का खेल I
विद्वान बना बैठा बेचारा,
घर-बाहर से जाता मारा,
कोई न सुनता बातें उसकी,
सारे हैं करते अठखेल, देख यही कलियुग का खेल.
हित -कुटुंब है मिथ्या सारा,
दुःख में बने न कोई सहारा,
मतलब के सब यार है रहते,
बेमतलब, सब है जंजाल, देख यही कलियुग का खेल.
सुख में सब दिखते समान,
दुःख है करता उनकी पहचान,
कौन हितैषी, कौन पराया,
दुःख करता उनको बेमेल, देख यही कलियुग का खेल I
दबंगों का अब वारा-न्यारा,
ज्ञानी बैठा बन बेचारा,
अफसर पर भी धौंस जमाए,
बदली करवाये, दे धकेल, देख यही कलियुग का खेल I
रिश्वतखोरों की जय-जयकार,
काला धन, काला व्यापार,
देश को सारा गिरवी रख दे,
मिल जाए जो मोटा माल, देख यही कलियुग का खेल I
Reblogged this on सच्चिदानन्द सिन्हा and commented:
बाबूजी द्वारा रचित आज की वस्तुस्थिति का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना पुनः वेश कर रहा हूँ। आशा है, आप सब पाठकों को पाण्ड आये।
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