जब बादल से आसमान, घिर जाता है हर ओर I
दिखता नहीं क्षितिज, धुंध है फ़ैल गया चहुँ ओर I I
है पवन शांत, बूँदें बारिश की , झड़ – झड़ कर गिरती धरती पर I
रुक कभी जाती, कभी बरसती, ध्वनि अनोखा है करती पर I I
चपला सी चमक दिखाती जब-तब , बीच- बीच में थम-थम कर I
गलियों- सड़कों पर जल प्रवाह, इठलाने लगता है बह -बह कर I I
है समय दोपहर का, पर लगता, हो गया शाम का वक्त अभी I
आने वाला है समय रात का, होगी काली रात अभी II
है आद्र पवन में उमस भरी, प्रतीक है बारिश आने की I
कुछ ही देर में निश्चित ही, सूचक है बारिश होने की II
फिर लगा झमा-झम गिरने बूंदे, आसमान से टिप-टिप कर I
धवनि मधुर करती है बूंदें, गिरती जब अवनी तल पर II
लजवन्ती के पत्ते सिमटें बूँदों का स्पर्श हुआ जब I
गड़ी हुई है शर्मसार जो, उपवर का दीदार हुआ जब II
बारिश दिखती है सुरम्य, पर कितनी शक्ति है उसमें I
जीवन नव प्रदान है करती, भरती है जीवन कण-कण में II
कल्पना नहीं कर सकते बिन जल, जीव-जंतु व पोधों का I
जल शून्य बनी गर धरती तब, प्राणी सजीव और सचर अचर का II
कभी-कभी वर्षा लेती है रूद्र रूप बन रण चंडी सा I
कर देती जल प्लावित क्षण में, प्रलय मचाती है उन्मत्त सा II
डुबोती ही नहीं गांव शहर को, नामों निशाँ मिटा देती I
मानचित्र में रहते चिन्हित्, बाकी सब चिन्ह मिटा देती II
बड़े-बड़े थे भवन जहाँ पर, बन जाता जल का धार वहाँ I
चले गये वे बीच धार में, बचा नहीं अवशेष जरा II
नीचे तल की है बात न केवल, घाटी-पर्वत की भी बात वही I
बह-डूब जाते पल भर में, उनकी भी तनिक बिसात नहीं II
मन- मस्तक स्वीकार न करता, डूबेंगे लोग पहाड़ों पर I
पर लोग डूबने लगते जब, ढाती उपर से क्रूर कहर II
अक्सर उन्हें डुबोती नदियाँ, निम्न जमीं पर बसे हुए जो I
अनायास भारी वर्षा है, नहीं बख्शती उच्च जमीं को II
मद मर्दन कर देती बारिश, महामानवों के भी मद को I
धो कर स्वच्छ बना देती है, जमीं मैल ऊपर के तह को II
पर सदा नहीं जब ऊब जाती, करती है दर्ज शिकायत तब ही I
पर देती अनुकूल सजा, निभाती है अपना फर्ज सभी II
कुदरत का यह खेल सदा ही, इस धरती पर है चलता I
कभी बनाता कभी मिटाता, सदा सर्वदा चलता रहता II
सूत्रधार है कौन खेल का, नहीं जानता कोई अभी I
कभी कोई कहता है किसको, देते अपने हैं तर्क सभी II
सूत्रधार के हाथों दुनिया, नाच रही बन कठपुतली I
रोल जिसे मिलता है जैसा, करती वैसा कठपुतली II
है सूत्रधार का सभी करिश्मा, जैसे जिसे नचाता है I
दिखलाता है खेल वही, जो सूत्रधार दिखलाता है II
सभी झुकाते सर अपना, इस सूत्रधार के आगे I
है नहीं कोई ऐसा जग में, जो झुका न कुदरत के आगे II